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________________ १८२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व निरामवी होने का उपाय गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - “जीव निरामवी कैसे होता है?" भगवान् महावीर ने उत्तर दिया - "हे गौतम! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन के विरमण (त्याग) से जीव निरानवी होता है। जो पाँच समितियों से युक्त, तीन गुप्तियों से युक्त, कषायरहित, जितेन्द्रिय, गौरवरहित और निःशल्य होता है, वह जीव निरानवी होता है। __ गौतम ने एक बार महावीर से पूछा - "भन्ते! प्रत्याख्यान करने (संसारी विषय-वासना का त्याग करने) से जीव को क्या लाभ होता है?" भगवान् ने उत्तर दिया, “हे गौतम! प्रत्याख्यान से जीव आसव-द्वार बंद कर सकता है और इच्छानिरोध कर सकता है। इच्छा-निरोध के कारण जीव सब द्रव्यों से तृष्णारहित होता है और शान्त बनता है।" इस कथन का सार यही है कि अप्रत्याख्यान आस्रव है। उसके कारण कर्मों का आगमन होता है। जो प्रत्याख्यान करता है, उसकी आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश नहीं होता। इसी प्रकार एक बार गौतम ने पूछा, "भगवन्! अनेक जन्मों में संचित किये गये कर्मों से मुक्ति कैसे प्राप्त होगी?" प्रभु ने कहा, "जिस प्रकार तालाब का पानी आने का मार्ग बंद करने पर और अंदर का पानी उलीचने पर वह सूर्य की उष्णता से सूख जाता है; उसी प्रकार पाप-कर्म के आस्रव को रोकने पर अर्थात् निरानवी होने पर, साधक के अनेक जन्मों के संचित कर्म तप द्वारा नष्ट हो जाते हैं।७२ उपर्युक्त कथन से स्पष्ट होता है कि नवीन कर्म के आगमन का निरोध करना या आस्रव को रोकना - कर्म से मुक्त होने की पहली सीढ़ी है। जो आनव-रहित होता है, उसके अति जड़ कर्म भी तप से नष्ट हो जाते हैं। __जीव तालाब के समान है। आस्रव जल-मार्ग के समान है और कर्म पानी के समान है। जीवरूपी तालाब को कर्मरूपी पानी से खाली करने के लिए आस्रवरूपी झरना पहले बंद करना चाहिए। जैनागम में आसव-द्वार के निरोध का उल्लेख अनेक जगह आया है। इसका कारण यही है कि आस्रव पाप-कर्म के आगमन का हेतु है। नया कर्मबंध न हो इसलिए पहले उसे रोकना आवश्यक है। जिस प्रकार कर्म से मुक्त होने के लिए नवीन कर्म से दूर रहना आवश्यक है, उसी प्रकार पूर्वसंचित कर्म से मुक्त होने के लिए निराम्रवी होना आवश्यक है। जीव में आस्रव के द्वारा कर्मागमन होता है क्योंकि जीव के अच्छे-बुरे परिणाम पुण्य-पाप के आस्रव से होते हैं। कर्म के प्रवेश-मार्ग को आत्म-प्रदेश से दूर रखना जीव का कर्तव्य है। कर्म, पुद्गल होने पर भी आत्म-प्रदेश में इस प्रकार आता है कि जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को पहचान नहीं सकता। उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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