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________________ १८१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व बौद्ध-दर्शन में भी आस्रव (आसव) शब्द आता है। परंतु उसका अर्थ चित्त-मल बताया गया है। जीव कषाय या चित्त-मल से युक्त होकर आवागमन करता है। __ 'आसव' शब्द को स्पष्ट करते समय बौद्ध-साहित्य में कहा गया है कि किसी वस्तु के स्थिर न होते हुए भी उस वस्तु को स्थिर मानना अनादि दोष है। उसका नाम अविद्या है। यह अविद्या आसव के कारण प्रकट होती है। इस आसव के चार भेद हैं - (१) कामासव, (२) भावासव, (३) दृश्यासव और (४) अविद्यासव। इनके अर्थ इस प्रकार बताये गये हैं - (१) कामासव : शब्दादि विषय प्राप्त करने की इच्छा। (२) भावासव : पंच स्कंध अर्थात् सचेतन देह में जीने की इच्छा। (३) दृश्यासव : बौद्ध-दृष्टि के विरुद्ध दृष्टि-सेवन करने का वेग। (४) अविद्यासव : अस्थिर या अनित्य पदार्थ के विषय में स्थिरता या नित्यता की बुद्धि। आसव अविद्या के सामान्य विकार हैं और क्लेश अविद्या का विशिष्ट विकार है।६७ कई जैन-पारिभाषिक शब्दों को जैन-दर्शन से बौद्धों ने लिया है। आम्नव शब्द भी उन्होंने जैन-दर्शन से ही लिया है, ऐसा प्रतीत होता है। वेदों में प्रयुक्त आनव शब्द का अर्थ सोम आदि मादक वस्तु है। इसलिए वैदिक 'आसव' शब्द का, जैन-पारिभाषिक शब्द 'आसव' के साथ संबंध नहीं है। धम्मपद में आम्रवक्षय-विषयक अनेक गाथाएँ है। आस्रव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं श्रीहेमचन्द्रसूरि का कथन है कि जो कर्म-पुद्गल ग्रहण के हेतु हैं, वे आस्रव हैं और जो ग्रहण किए जाते हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं। इस प्रकार आस्रव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं हैं। आस्रव कर्म-आगमन का कारण है इसलिए वह कर्म से भिन्न है। जीव द्वारा कृत मिथ्यात्व आदि कर्म आनव के कारण होते हैं। जीव द्वारा किए जाने वाले कर्म को आत्म-प्रदेश में ग्रहण करना- मिथ्यात्व आदि आस्रव का हेतु है। आम्रव कारण अर्थात् साधन है और कर्म कार्य है। आस्रव जीव का परिणाम या कार्य है और कर्म उस परिणाम या क्रिया का पौद्गालिक फल है। इसलिए कर्म से इसे पृथक् माना गया है। जिस प्रकार छेद और उसमें प्रविष्ट होने वाला पानी, दरवाजा और उसमें प्रविष्ट होने वाले प्राणी- एक नहीं हैं, पृथक्-पृथक् हैं; उसी प्रकार आस्रव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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