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________________ १७५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व । पच्चीस क्रिया २५ कुल ४२ उक्त बयालीस भेदों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है - पाँच इन्द्रियाँ १- स्पर्शन : शरीर को स्पर्श करने के लिए प्रवृत्त करना। २- रसन : जिला को रस ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त करना। ३- घ्राण : नाक को गंध लेने के लिए प्रवृत्त करना। ४- चक्षु : आँखों को रूप देखने के लिए प्रवृत्त करना। ५- श्रोत्र : कानों को सुनने के लिए प्रवृत्त करना। चार कषाय १- क्रोध : गुस्सा करना। २- मान : गर्व करना। ३- माया : कपटपूर्ण आचरण करना। ४- लोभ : आसक्ति रखना। पाँच अव्रत १- हिंसा : प्रमत्त योग से होने वाला प्राणिवध हिंसा है - प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा - तत्त्वार्थ ७/८ । २- असत्यःअसत्य बोलना। अनृत ही असत्य है-'असदभिधानमनृतम्-तत्त्वार्थ ७/६। ३- चोरी : दिये बिना लेना चोरी है - अदत्तादानम् स्तेयम्। - तत्त्वार्थ ७/१०। ४- अब्रह्म : मैथुन-प्रवृत्ति अब्रह्म है - मैथुनम् अब्रह्म - तत्त्वार्थ ७/११। ५- परिग्रह : मूर्छाभाव (आसक्ति) परिग्रह है - मूर्छा परिग्रहः - तत्त्वार्थ ७/१२ । तीन योग १- मन योग : मन को अशुभ कार्य में प्रवृत्त करना। २- वचन योग : वचन को अशुभ कार्य में प्रवृत्त करना। ३- काय योग : काया को अशुभ कार्य में प्रवृत्त करना। पच्चीस क्रियाएँ पच्चीस क्रियाएँ सांपरायिक कर्म के बंधन के लिए कारण हैं। क्रिया दो प्रकार की है - (१) जीव के निमित्त से लगने वाली जीव क्रिया और (२) अजीव निमित्त से लगने वाली अजीव क्रिया। जीव-क्रिया के भी दो भेद हैं - (१) सम्यक्त्वी जीवों को लगने वाली क्रिया तथा (२) मिथ्यात्वी जीवों को लगने वाली क्रिया। अजीव क्रिया के दो भेद हैं - (१) साम्परायिक क्रिया और (२) ईर्यापथिक क्रिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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