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________________ १७६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व ईर्यापथिक क्रिया एक ही प्रकार की है। साम्परायिक क्रिया के पच्चीस भेद हैं, जो निम्नलिखित हैं - १- कायिकी क्रिया : दुष्टतापूर्वक और अयतनापूर्वक काया की प्रवृत्ति करना। ‘मेरा शरीर दुर्बल होगा' आदि विचारों से व्रत-नियम आदि का पालन और धर्माचरण न करते हुए आरंभजनक (जिससे पाप लगता है ऐसा) कार्य करना कायिकी क्रिया है। उसके दो भेद हैं- (१) अनुपरत कायिकी क्रिया और (२) दोषयुक्त कायिकी क्रिया। २- अधिकरणिकी क्रिया : चाकू, छुरी, कैंची, सुई, तलवार, भाला आदि शस्त्रों का संग्रह या प्रयोग करने से तथा कठोर और दुःखजनक वचनों का उच्चार करने से अधिकरणिकी क्रिया लगती है। इसके दो भेद हैं - (१) संयोजनाधिकरणिकी, (२) निर्वर्तनाधिकरणिकी। ३- प्राद्वेषिकी क्रिया : क्रोध के आवेश में होने वाली क्रिया। ईर्ष्या-द्वेष करना, जीव और अजीव के प्रति मत्सर भाव रखना और दूसरे का बुरा देखकर आनंदित होने से यह क्रिया लगती है। इसके दो भेद हैं- (१) जीव के प्रति द्वेष भाव रखना, (२) अजीव के प्रति द्वेष भाव रखना। ४- पारितापनिकी क्रिया : प्राणियों को दुःख देने, किसी भी शस्त्र से अपने या दूसरे के शरीर के अवयवों का छेदन करने इत्यादि से लगने वाली क्रिया। इसके दो भेद हैं - (१) स्वहस्तिकी क्रिया तथा (२) परहस्तिकी क्रिया। ५- प्राणातिपातिकी क्रिया : विष से या शस्त्र से जीव का घात करने से यह क्रिया लगती है। स्वयं प्राणी का नाश करने या दूसरे को नाश करने के लिए कहने से इस क्रिया के दो भेद हो जाते हैं- (१) स्वहस्तिकी क्रिया तथा (२) परहस्तिकी क्रिया। ६- आरम्भिकी क्रिया : पृथ्वीकाय आदि षटकाय-जीवों की हिंसा का जब तक त्याग नहीं किया जाता, तब तक जो पाप लगता है, वह आरंभिकी क्रिया है। इसके दो भेद हैं - (१) जीवों का आरंभ करने से लगने वाली क्रिया एवं (२) अजीवों का आरंभ करने से लगने वाली क्रिया। ७- परिग्रहिकी क्रिया : धन-धान्य, क्षेत्र, वस्तु, सोना, चाँदी, द्विपाद, चतुष्पाद आदि का संग्रह करने से और उस के प्रति मोह-ममत्व रखने से लगने वाली क्रिया। इसके दो भेद हैं- (१) जीवपरिग्रह क्रिया और (२) अजीव परिग्रह क्रिया। ८- मायाप्रत्यया क्रिया : कपट करने से लगने वाली क्रिया। अपनी दुष्ट भावनाओं को छुपाकर अच्छेपन का प्रदर्शन करने तथा दूसरों को फँसाने के लिए अनेक योजनाएँ बनाने से लगने वाली क्रिया। इसके भी दो भेद हैं . (१) आत्मभाव-वक्रता तथा (२) परभाव-वक्रता। ६- अप्रत्याख्यानप्रत्यया क्रिया : उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का जब तक त्याग नहीं किया जाता, तब तक यह क्रिया लगती है। इसके दो भेद हैं - (१) सजीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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