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________________ १६९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व पाँच इन्द्रियों के विषयों मे तल्लीन होने से, स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा और राजकथा आदि विकथाओं में रस लेने से तथा निद्रा और प्रणय आदि में मग्न होने से कुशल (सत्प्रवृत्त) मार्ग के विषय में अनादर का भाव उत्पन्न होता है।। इस प्रकार जागरूकता के अभाव में कुशल कर्म के विषय में अनास्था भी उत्पन्न होती है और हिंसा की भूमिका भी तैयार होती है। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है। दूसरे प्राणियों की हत्या हो या न हो, प्रमादी व्यक्ति को हिंसा का अशुभ मिलता ही है। संपूर्ण जगत् में मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए उसे प्रत्येक क्षण का उपयोग नये कर्मागमन को रोकने के लिए और पूर्व में बाँधे हुए कमों का क्षय करने के लिए करना चाहिए। ___ साधक को भारंड पक्षी के समान अप्रमादी यानी सावधान रहना चाहिए'भारंड पक्खी य चरेडपमत्ते'। (४) कषाय • 'कषाय' सामासिक शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है - कष + आय । कष का अर्थ है - संसार क्योंकि उसमें जीव विविध दुःखों के कारण कष्ट सहन करते हैं और पीड़ित होते हैं। आय का अर्थ है - प्राप्ति। इन दोनों पदों का सम्मिलित अर्थ है - जिसके द्वारा संसार की प्राप्ति होती है, उसे 'कषाय' कहते है। __वस्तुतः कषाय-गति बड़ी ही तीव्र (प्रबल) होती है। जन्म-मरण रूपी यह संसार कषायों से भरा हुआ है। यदि कषाय का अभाव हो जाय तो जन्म-मरण की परम्परा का विषवृक्ष स्वयं ही शुष्क होकर नष्ट हो जायेगा। इसीलिए आचार्य शय्यंभव ने कहा है - अनिग्रहीत कषाय पुनर्भव के मूल में पानी देते हैं, उसे सूखने नहीं देते। ____ कषाय अध्यात्म के लिए दोषरूप हैं। चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट, वे आत्मा के ज्ञान तथा दर्शन को और चारित्र्यरूप शुद्ध स्वरूप को मलिन करते हैं। कर्म-रंगों से आत्मा को रँगते हैं और दीर्घ काल तक आत्मा की सुख-शान्ति को छिन्नभिन्न करते हैं। क्योंकि कषाय ही कर्म के उत्पादक हैं। वे जीव को दुःख देते हैं। अगर कषाय नहीं रहें तो कर्म-बंध भी नहीं होगा। आचार्य वीरसेन ने कषायों की कोत्पादकता के संबंध में 'धवला' ग्रंथ में कहा है - 'जो दुःखरूपी अनाज उत्पन्न करने वाले कर्मरूपी खेत को जोतते हैं, फलयुक्त करते हैं, वे क्रोध, मान, माया आदि कषाय हैं।२ कषाय -वेदनीय कर्म के उदय से होने वाला क्रोध आदि रूप कालुष्य कषाय है। अर्थात् आत्मा के कलुषित परिणाम को कषाय कहते हैं। कषाय आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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