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________________ १७० जैन-दर्शन के नव तत्त्व के स्वाभाविक स्वरूप को नष्ट करते हैं और कर्म के साथ आत्मा का संबंध जोड़ते क्रोध, मान, माया तथा लोभ - इन चार कषायों के अलावा अनेक प्रकार के कषायों का निर्देश आगम में मिलता है। क्रोध आदि इन चार कषायों को शास्त्रों में लुटेरों की उपमा दी गयी है। परन्तु इन लुटेरों में और सामान्य लुटेरों में यह अन्तर है कि दूसरे प्रकार के लुटेरे संपत्ति का हरण करके भाग जाते हैं, परन्तु क्रोधादिरूप लुटेरे आत्मा की संपत्ति को लूटकर आत्मा में ही छिपकर बैठ जाते हैं। इसलिए उन्हें 'अज्झत्थ दोसा' - आत्मा में छिपे हुए दोष, रोग और तस्कर कहा गया है। ये आत्मा को अपने संपर्क द्वारा निःसत्व और तुच्छ करके संसार-परिभ्रमण कराते हैं। इसीलिए कहा गया है - कोहो य माणो य अणिग्गहोआ, माया य लोहो य पवढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाइ पुणब्भवस्स।। - दशवैकालिक ८/४० इसका अर्थ यह है कि क्रोध, मान माया और लोभ वृद्धिंगत होकर जीव के पुनर्जन्म के मूल में सिंचन करते रहते हैं। अर्थात् पुनर्जन्म, पुनःमरण (पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं) - इस प्रकार बार-बार जन्म-मरणों का चक्र चलता रहता है। कषायों के कारण जीव के जन्म-मरण के मूल कारणों में वृद्धि होती है और जीव बार-बार जन्म-मरण के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है। कषाय जीव का संसार में परिभ्रमण कराते हैं, इतना ही नहीं, उसके आत्मिक गुणों का घात भी करते हैं। क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है। माया-कपट मित्रता का नाश करते हैं और लोभ सभी गुणों का नाश करता है। क्रोध से जीव का अधःपतन होता है। जीव अपने स्थान से भ्रष्ट होता है। और जो स्थान-भ्रष्ट हुए हैं, उनकी संसार में प्रतिष्ठा नहीं रहती। मान-कषााय के कारण सद्गति प्राप्त नहीं होती। लोभ से इहलोक-परलोक के विषय में भय उत्पन्न होता है, इसलिए इन आत्माघाती कषायों को छोड़ना ही चाहिए।" कषाय का आगमन होने पर मनुष्य की बुद्धि तथा विचारशक्ति शून्य हो जाती हैं। उसमें विवेक नहीं रहता। सभ्यता और शिष्टाचार नहीं रहते। इसीलिए कषायों को चण्डाल-चौकड़ी कहा गया है। ये कषाय रात-दिन कहीं भी अपने कुकर्म-वृत्ति रूपी शस्त्र द्वारा जीव की शक्ति का हरण करते रहते हैं। ६ क्रोध आदि कषाय आत्मा को कुगति में ले जाने के कारण होते हैं, आत्मा के स्वरूप की हिंसा करते हैं, इसीलिए वे कषाय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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