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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
(१-६) पृथ्वी आदि षट्काय जीवों की हिंसा का त्याग न करना। (७-११) स्पर्श, रस आदि पंचेन्द्रियों को विषय-प्रवृत्ति से न रोकना।
(१२) मन का असंयम अर्थात् मन को अशुभ प्रवृत्ति से न हटाना। (३) प्रमाद • जागरूकता का अभाव प्रमाद कहलाता है। अर्थात् आत्म-कल्याण में और सत प्रवृत्ति में उत्साह न होना अपितु अनादर होना प्रमाद है।
धर्म के लिए आत्मा का आन्तरिक अनुत्साह - आलस्य भाव अथवा शुभ उपयोग का अभाव, या शुभ कार्य में उद्यत न होना अथवा सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के लिए प्रयत्न करने में शिथिलता करना - इन सभी का नाम प्रमाद है। भाव यह है कि आत्म-विकास की प्रवृत्ति में आलस्य और शिथिलता को प्रमाद कहते हैं।
मिथ्यात्व और अविरति के समान ही प्रमाद भी जीव का महान् शत्रु है। इसीलिए भगवान् महावीर ने गौतम से कहा, "हे गौतम! समयं गोयम, मा पमायए।" अर्थात् 'क्षणमात्र का भी प्रमाद न कर'।
धर्म-क्रिया में प्रमाद करने से जिनका समय व्यर्थ चला जाता है, वे इस प्रमाद के दोषों के कारण संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। इसलिए अगर जीव को इस संसार में परिभ्रमण नहीं करना है, तो विवेकशील आत्मा को क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जिन्होने जीवन में प्रमाद किया उन्होंने अपनी आयु को व्यर्थ गँवाया। प्रमाद के पाँच भेद :
(१) मद, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा, (५) विकथा - ये पाँच प्रमाद जीव से संसार में परिभ्रमण कराते हैं। इनके अर्थ इस प्रकार हैं - मद : जाति, कुल, बल, रूप, तप, ज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य और बड़प्पन का
गर्व करना। विषय : पंचेन्द्रियों का - रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द - इन विषयों में
आसक्त रहना। कषाय : क्रोध, मान, माया और लोभ - इन कषायों में प्रवृत्ति रखना। निद्रा : नींद तथा आलस्य के कारण सुस्त रहना। विकथा : निरर्थक और पापजनक क्रियाओं जैसे - स्त्रीकथा, भोजनकथा,
राजकथा, देशकथा आदि में रस लेना।
इस प्रकार प्रमाद के - चार विकथाएँ, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निद्रा तथा एक प्रणय (मद) - कुल पंद्रह भेद होते हैं।
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