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जैन दर्शन के नव तत्त्व
जब तक मन और इंद्रियों को संयमित नहीं किया जाता, तब तक अविरति का पाप लगता है। कुछ लोग कहते हैं कि जो पाप हमनें नहीं किया और जिन पदार्थों का हमनें भोग नहीं किया, उनका पाप हमें क्यों लगता है ? इसका उत्तर यह है जब दरवाजा खुला रहता है, तब कोई भी अंदर आ सकता है । इसी प्रकार जब तक त्याग नहीं किया जाता, आशा और तृष्णा रूपी दरवाजा बन्द नहीं किया जाता, तब तक उस दरवाजे द्वारा आने वाला पाप सीधे अंदर प्रवेश करता है, रुक नहीं सकता।
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उपर्युक्त कथन को और अधिक स्पष्ट करने के लिए 'भावना- शतक' में कहा गया है कि जिस प्रकार बाप-दादों से अर्जित सम्पत्ति व्यक्ति की सन्तान या वारिसों को मिल जाती है और वे उस पर अपना अधिकार समझते हैं । उसी प्रकार पिछले अनन्त जन्मों में जीव ने जो पाप कर्म किये हैं; उन कर्मों का वर्तमान काल में किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष संबंध न होने पर भी; जब तक पाप का मन, वचन तथा काया के द्वारा त्याग नहीं किया जाता है, व्रत धारण नहीं किया जाता है, पूर्व के अधिकरणों (साधनों) से उसका संबंध नष्ट नहीं होता है; तब तक समस्त पाप-क्रियाएँ जीव को लगती हैं । ३.
भले ही वर्तमान काल में किसी भी वस्तु के साथ संबंध न हो और इन्द्रिय - भोग भी नहीं किया हो, परन्तु भूतकाल में संपर्क रहा हो और भविष्यत् काल में होने की संभावना हो तो भी पाप कर्म के आगमन के दरवाजे को बन्द कर देना चाहिए। परंतु वह दरवाजा तभी बन्द हो सकता है जब प्रत्याख्यान किया जाए तथा अविरति का त्याग किया जाये ।
अविरति का त्याग करने से जीव को बड़े पैमाने पर लाभ होता है इसीलिए कहा गया है'निरुद्धासवे, सुप्पणिहिये विहरइ ।' भावनायोग : एक विश्लेषण, पृ- २८३ ।
असवलचरित्ते, अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते
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त्याग करने का पहला लाभ यह है कि जीव आस्रवों का निरोध करता है और कर्मागमन का द्वार बंद हो जाता है। दूसरा लाभ यह है कि शुद्ध चारित्र का पालन होता है। तीसरा लाभ यह है कि पाँच समिति तथा तीन गुप्तिरूप 'अष्ट प्रवचन' रूपी माता की आराधना में हमेशा जागृति रहती है, जिससे सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर जीव विचरण करता है और रम जाता है।
विरति के अनेक लाभ हैं परन्तु अविरति की स्थिति में उपर्युक्त एक भी लाभ नहीं मिलता, उल्टे नुकसान होने की संभावना रहती है। इसलिए आत्म-कल्याण के लिए अविरति का त्याग करना चाहिए । अविरति के बारह भेद हैं
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