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जैन-दर्शन के नव तत्त्व साथ ही दूसरे के विषय में भी यथार्थ दृष्टि नहीं रह पाती। मिथ्यादृष्टि की स्वरूप-स्थिति को संक्षेप में 'विवेकशून्य निर्जीव' शरीर कहा जाता है।
तत्त्व का सत्य श्रद्धान न होने से मिथ्यात्व के अनेक भेद हो सकते हैं क्योंकि आत्म-परिणामों की गिनती नहीं की जा सकती। वे सम्यकूरूप भी होते हैं
और मिथ्यात्वरूप भी होते हैं। जब परिणामों का प्रवाह तात्त्विक दृष्टि और सत्य-प्ररूपणा की ओर उन्मुख होता है, तब वह सम्यक् रूप ही अतत्त्व में तत्त्वदृष्टि रूप होता है। उसी प्रकार विपरीत धारणा और असत्य आग्रह आदि से युक्त होकर उसके अनुसार प्ररूपणा की ओर उन्मुख होने पर मिथ्यारूप होता है। इस प्रकार जीव जब मिथ्यात्व से युक्त हो जाता है, तब अनन्त काल तक संसार का बन्ध करते हुए संसार-परिभ्रमण करता रहता है, क्योंकि मिथ्यात्व ही सब दोषों का मूल है।
अभ्यन्तर में वीतराग के लिए रुचि होने पर भी उसके विषय में विपरीत अभिनिवेश (आग्रह) को उत्पन्न करने वाला मिथ्यात्व कहलाता है। साथ ही बाह्य विषयों में परसंबंधी शुद्ध आत्मतत्त्व से लेकर संपूर्ण द्रव्य तक जो विपरीत अर्थात् उलटे आग्रह को उत्पन्न करता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं।
आगम-शास्त्र में मिथ्यात्व को पाप कहा गया है। जब तक मिथ्यात्व का अस्तित्त्व होता है, तब तक शुभाशुभ सारी क्रियाओं को अध्यात्म-दृष्टि से पाप ही कहा जाता है।
__ शरीरधारी जीव के लिए मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई भी अकल्याणकारी नहीं है। मिथ्यात्व ही सब से बड़ा पाप है। जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है।३६ (२) अविरति - विरति का अर्थ है त्याग और त्याग न करना ‘अविरति' है। अर्थात् इच्छा और पापाचरण से विरत न होना अविरति है। इन्द्रिय-विषयों का त्याग न करना और त्याग की भावना न रखना अर्थात त्याग के बारे में उदासीन रहना और भोग में उत्साह दिखाना अविरति है। मानव के इच्छा करते ही कषाय की ऐसी जबर्दस्त उत्पत्ति होता है, कि मानव पूर्णतः तो दूर, थोड़ा सा भी चारित्र प्राप्त नहीं कर पाता।
इच्छा की उत्पत्ति का स्थान मन है। पाप-प्रवृत्ति शरीर और वचन के द्वारा होती है। इसलिये मन और इन्द्रियों के असंयम से प्रवृत्त होकर पृथ्वी आदि षट्काय जीवों की हिंसा का त्याग न करना तथा प्रत्याख्यान न करना अविरति है। अभ्यन्तर में निज परमात्म-स्वरूप की भावना के कारण उत्पन्न परमसुख रूपी अमृत है और उस परमसुख में प्रीति भी है, तथापि इसके विपरीत बाहय विषयों में व्रत आदि धारण न करना भी, अविरति है।३०
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