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________________ १६३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व भावानव की मन्दता, मध्यम अवस्था और तीव्रता के अनुसार आत्म-प्रदेश का परिस्पन्दन होता है। जीव के द्वारा हर समय मन, वचन तथा काया द्वारा जो शुभ या अशुभ प्रवृत्तियाँ होती हैं, उन्हें जीव का भावानव कहते हैं। उसके निमित्त से कुछ विशेष प्रकार की जो जड़ पुद्गल-वर्गणाएँ आकृष्ट होकर उसके प्रदेश में प्रवेश करती हैं, वह द्रव्यानव है। इस प्रकार द्रव्यानव और भावानव की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ हैं। परंतु उन सब का भावार्थ एक ही है।५ ईर्यापथ और सांपरायिक आस्रव जैन-आगम में आम्रव के सामान्यतः दो भेद हैं। ईर्यापथ आस्रव और सांपरायिक आनव। कषाय-सहित जीव को सांपरायिक आस्रव होता है और कषाय-रहित वीतराग जीव को ईयापथ आम्रव होता है।६।। ___ कषाययुक्त योग से होने वाला सांपरायिक आस्रव बन्ध का कारण होने से संसार को बढ़ाता है। संपराय का अर्थ है संसार। संसार के कारणभूत कर्मों को सांपरायिक कर्म कहते हैं - 'संपरायः संसारः तत् प्रयोजनम् कर्म सांपरायिकम्। जो कर्म संसार का प्रयोजन है और संसार की वृद्धि करने वाला है, ऐसे कर्म के आगमन को सांपरायिक आस्रव कहते हैं।२७ सांपरायिक कर्म से कर्म का आम्नव होता है और आने के समय कुछ भी फल न देने से कर्म का क्षय होता है। मोह का सब प्रकार से उपशम या क्षय होने पर ऐसे कर्म आते हैं। जब तक कषाय का थोड़ा सा भी सद्भाव है, तब तक ईर्यापथ आनव नहीं हो सकता। ईर्यापथ आम्रव सिर्फ मन, वचन तथा काया का योग होने पर ही होता है। इसमें कषाय नहीं होते। एक क्षण में कर्म आते हैं और जाते हैं। इसलिए कर्म का बंध नहीं होता। कारण यह है कि कषाय और राग-द्वेष न होने से कर्मबन्ध नहीं होता। इसलिए इसे 'ईर्यापथ आसव' कहते हैं। जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि विकार हैं, वह सांपरायिक आस्रव है, और जिसमें ये विकार नही हैं, वह ईर्यापथ आसव है। आत्मा का संपराय अर्थात् पराभव करने वाला कर्म सांपरायिक है। जिस प्रकार गीली चमड़ी पर हवा द्वारा लायी गयी धूल चिपक जाती है, उसी प्रकार योग द्वारा आकृष्ट होने वाले कर्म-पुद्गल कषाय के उदय के कारण आत्मा से चिपक जाते हैं और स्थिति प्राप्त करते हैं। यह सांपरायिक कर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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