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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
द्रव्यानव और भावानव
आनव के दो भेद हैं - (१) द्रव्यास्रव और भावानव ।
आस्रव के दो भेद मानने का कारण यह है कि संसारी जीव शरीर आदि से सम्बद्ध हैं, और संसार में अनेक प्रकार की पुद्गल-वर्गणाएँ भरी हुई हैं। इनमें कार्मण-वर्गणा भी एक है, और वह कर्मरूप बनने की योग्यता धारण करती है। परंतु कार्मण-वर्गणा कर्मरूप उसी समय बनती है, जब जीव आत्म-प्रदेश में परिस्पन्दन करता है। इसलिए कार्मण-वर्गणा और आत्म-परिणाम - इन दोनों को अलग-अलग समझने के लिए द्रव्यानव और भावासव ये दो भेद किये गये हैं। भावानव तेल से आवेष्टित पदार्थ के समान है और द्रव्यानव उससे चिपकने वाली धूल के समान है। भावानव निमित्त कारण है और द्रव्यानव कारण की सामर्थ्य के परिणाम को दिखाता है।
अपने-अपने निमित्त रूप से योग को प्राप्त कर आत्म-प्रदेश में स्थित पुद्गल कर्मरूप में परिणमितं होते हैं, अथवा ज्ञानावरण आदि कार्यों के कारण जो योग्य पुद्गल आता है, उसे द्रव्यानव कहते हैं।
आत्मा के स्वयं के जिन शुभ-अशुभ परिणामों के कारण पुद्गल द्रव्य कर्म बनकर आत्मा में आते हैं, उन परिणामों को भावानव कहते हैं।२३ ।
आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव होता है, वह परिणाम भावानव कहलाता है। भावार्थ यह है कि कर्मानव को दूर करने में समर्थ जो शुद्ध आत्मा की भावना है, उस भावना के विरुद्ध जिस परिणाम से आत्मा के कर्म का आम्नव होता है, वह द्रव्यासव है। अविरति, प्रमाद, योग, क्रोध आदि कषाय 'भावानव' हैं।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय- इन आठ कमों के योग से जिस पुद्गल कर्म का आगमन होता है, वह द्रव्यानव है।४
____ जीव द्वारा प्रतिक्षण मन, वचन और काया के द्वारा जो शुभ और अशुभ प्रवृत्ति होती है, उसे भावानव कहते हैं। उसके निमित्त से विशेष प्रकार के जो जड़ पुद्गल आकृष्ट होकर उसके प्रदेश में प्रवेश करते हैं, उन्हें 'द्रव्यानव' कहते हैं।
जिन भावों से कर्म का आस्रव होता है, उन्हें भावानव कहते हैं। कर्मद्रव्य के आगमन को द्रव्यानव कहते हैं। पुद्गल में कर्म-पर्याय की निर्मिति होना तथा उसका आत्म-प्रदेश में जाना- द्रव्यानव कहलाता है। मिथ्यात्व आदि भावों को भावबन्ध कहा गया है। परंतु प्रथम क्षण में उत्पन्न होने वाले ये भाव कमों को आकृष्ट करने की योग-क्रिया के कारण बनते हैं, इसलिए इन्हें भावाम्नव कहते हैं। For Private & Personal Use Only
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