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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
प्रकार आज का आस्रव पूर्व के बन्ध का कारण, वह बन्ध पूर्व के आसव का कारण और वह आस्रव उसके पूर्व के बन्ध का कारण होता है। इस प्रकार आस्रव और बन्ध का संबंध अनादि काल से, अखण्ड रूप से है।६
पुण्यास्रव और पापासव
यह आम्रव जब पुण्य-बन्ध में होता है तब इसे पुण्यासव कहते हैं और जब पाप-बंध में होता है तब इसे पापानव कहते हैं। पुण्यानव और पापानव - ये दोनों मिथ्यात्व आदि की तीव्रता और मन्दता की अपेक्षा से अनेक प्रकार के होते
जीव का परिणमन दो प्रकारों से होता है - शुभ और अशुभ। शुभ भाव पुण्य का आम्नव है और अशुभ भाव पाप का आनव है। जिस प्रकार, सर्प के द्वारा ग्रहण किये गये दूध का विष में रूपान्तर होता है और मनुष्य के द्वारा ग्रहण किये गये दूध का पोषण के रूप में रूपान्तर होता है। उसी प्रकार बुरे परिणाम से
आत्मा में सवित कर्म-वर्गणा के पुद्गल पाप-रूप में परिणमन करते हैं और अच्छे परिणाम से आत्मा में सवित कर्म-वर्गणा के पुद्गल पुण्य-रूप में परिणमन करते हैं। जीव की अच्छी अथवा बुरी भावना 'आसव' कहलाती है।'
जिस जीव में प्रशस्त राग है, अनुकम्पायुक्त परिणाम है और चित्त की कलुषता का अभाव है, उस जीव को 'पुण्य-आम्नव' होता है।"
प्रमाद-सहित क्रिया, मन की मलिनता और इन्द्रियों के विषय में चंचलता, इसके साथ ही अन्य जीवों को दुःख देना, दूसरों की निन्दा करना, बुरा बोलना आदि के आचरण से अशुभ-योगी जीव पाप का आम्नव करता है। इसे ही 'पापासव' कहते हैं।
हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन सब का त्याग करना ही जिसका लक्षण है, ऐसे व्रत को भावपूर्वक धारण करना पुण्यानव को बढ़ाता है। पाँच पापों का त्याग करना ही व्रत है। व्रत से पुण्यकर्म का आस्रव होता
हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन सब का त्याग न करना ही जिसका लक्षण है, ऐसा अव्रत अपनी भावना से स्वयं पापासव को बढ़ाता है। पाँच पापों का त्याग न करना अव्रत है। अव्रत से पापकर्म का आस्रव होता है।२२
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