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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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उसका फल है । जीव के प्रदेश में कर्म के आगमन का हेतु उसका परिणाम है जीव का परिणाम ही यह आस्रव द्वार है। परिणाम का अर्थ है मिथ्यात्व प्रमाद
आदि भाव
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जो कर्म - पुद्गल के ग्रहण के हेतु हैं, वे आनव हैं। जो ग्रहण किये जाते हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं । *
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आस्रव-द्वार या बन्ध - हेतु
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्ध- हेतु अर्थात् आनव हैं। जीव के परिणाम हैं । १५
बन्ध
-हेतुओं की संख्या के संबंध में तीन परंपराएँ हैं - कषाय और योग ये दोनों बन्धहेतु हैं ।
(१) पहली परम्परा (२) दूसरी परम्परा (३) तीसरी परम्परा
हे हैं।
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मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्धहेतु हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्ध
इस प्रकार संख्याओं में भेद है, परंतु तात्त्विक दृष्टि से इन परंपराओं में कोई अन्तर नहीं है
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प्रमाद एक प्रकार का असंयम है, इसलिए वह अविरति या कषाय के अंतर्गत ही है। इस दृष्टि से पाँच आस्रव द्वारों के बजाय चार बताये गये है । उमास्वाति के मतानुसार बताये गये पाँच आस्रवों- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का विवेचन आगे किया जायेगा ।
आज जिन भावों से कर्म का आनव हो रहा है, वे भाव पहले से बँधे हुए कर्म के उदय से हुए हैं। इसलिए आज के आनव पूर्वबन्ध के कार्य हैं । उसी तरह आगे होने वाले कर्मबन्ध के कारण हैं। इस प्रकार बन्ध, पूर्व आसव का कार्य और उत्तर आनव का कारण बनता है ।
जिस प्रकार, जो बीज हम आज बोते हैं, वह पहले वृक्ष का कार्य होता है और आगे उगने वाले अंकुर का कारण होता है । उसी प्रकार आनव और बंध में बीज और अंकुर के समान कार्य-कारण भाव है। अगर उस आनव को बन्ध का हेतु और उस बंध का ही कार्य मान लिया जाता तो इतरेतराश्रय हो गया होता । परंतु आनव और बन्ध का प्रवाह अनादि माना गया है। अनादि काल से पूर्व बन्ध के कारण आस्रव और उसी के कारण उत्तरबन्ध होता आया है।
जिस प्रकार आज का बीज पूर्व के वृक्ष का और वह वृक्ष उसके पूर्व के बीज का कारण है और ऐसी परम्परा अनादि काल से चलती आ रही है, उसी
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