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________________ १५९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व ____ आस्रव पुण्य-पापरूपी कमों के आगमन का द्वार है। जिसके कारण और जिसके माध्यम से शुभाशुभ कर्म आत्म-प्रदेश में प्रविष्ट होते हैं और आत्मा के साथ बँध हैं, वही आसव है। आम्नव द्वारा आत्मा कर्म का ग्रहण करता रहता है। जिस प्रकार स्त्रोत द्वारा तालाब में पानी आता है, दरवाजे द्वारा गृह में प्रवेश होता है, उसी प्रकार आत्म-प्रदेश में कर्म का आगमन होता है, उसके जो मार्ग हैं, वे आस्रव हैं। कर्म-आगमन का द्वारा होने से आस्रव को आगम-शास्त्र में आनव-द्वार भी कहा गया है। संसारी जीव मन, वचन और काया से युक्त होता है। मन, वचन तथा काया को योग कहते हैं। योग में परिस्पंदनात्मक क्रिया प्रतिक्षण होती रहती है, जिसके कारण जीव हमेशा कर्म-पुद्गल के आनव ग्रहण करता रहता है। जिस प्रकार नदी द्वारा समुद्र को हमेशा पानी मिलता रहता है, एक क्षण भी प्रवाह बंद नहीं होता, उसी प्रकार जीव हिंसा, असत्य अथवा राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति द्वारा कर्म का सतत् ग्रहण करता रहता है। कर्म एक क्षण भी नहीं रुकता, इसलिए कर्म-आगमन के मार्ग को आस्रव कहते हैं।” आस्रव तत्त्व और आसव-द्वार आम्नव-तत्त्व को आम्नव-द्वार भी कहते हैं। दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। स्थानांगसूत्र और समवायांगसूत्र में आम्नवद्वार शब्द का प्रयोग किया गया है। आत्म-प्रदेश में कर्म के प्रवेश के द्वार को आम्नवद्वार कहते हैं। जिस प्रकार कुएँ में पानी आने के अनंत स्रोत होते हैं, नौका में जल-प्रवेश का कारण उसके छिद्र होते हैं घर में प्रवेश करने का साधन उसके दरवाजे होते हैं, उसी प्रकार जीव-प्रदेश में कर्म के आगमन का मार्ग आम्नव-तत्त्व है। कर्म के प्रवेश के हेतु, उपाय, साधन अथवा निमित्त आम्नव होने से आसव-तत्त्व को आश्रवद्वार कहा गया है।२।। आस्रव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं हैं। जिस प्रकार छिद्र और उसमें प्रविष्ट होने वाला पानी एक नहीं है। अपितु छिद्र पानी के प्रवेश का कारण जिस प्रकार दरवाजा और उसमें प्रविष्ट होने वाले प्राणी एक नहीं होते, अलग-अलग होते हैं, घर का दरवाजा प्रवेश का मार्ग है; उसी प्रकार आस्रव और कर्म - ये दोनों एक नहीं हैं, अलग-अलग हैं। आस्रव कर्म के आगमन का कारण है। कर्म जड़ है। आनव जीव का परिणाम अथवा उसकी क्रिया है और कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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