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जैन-दर्शन के नव तत्त्व जिस प्रकार सूखी दीवार पर, पत्थर या लकड़ी का टुकड़ा फैंकने पर वह दीवार से चिपकता नहीं है, उसी प्रकार योग से आकृष्ट कर्म, कषाय का उदय न होने से, आत्मा से लगकर तत्काल छूट जाते हैं। ऐसे कर्म ईर्यापथ कर्म हैं। ईर्यापथ कर्म की स्थिति सिर्फ एक क्षण की मानी गयी है।
सांपरायिक आस्रव कषाय की तीव्रता और मन्दता के अनुरूप ज्यादा या कम स्थितियुक्त होता है। और जहाँ तक हो सकता है, शुभाशुभ विपाक (फल) के कारण स्थितियुक्त होता है। परंतु कषाय-युक्त आत्मा को मन-वचन और काया द्वारा जो कर्म बाँधता है, वह कषाय के अभाव में विपाकजनक नहीं होता।
उपर्युक्त दोनों प्रकार के आम्नवों में योग निमित्त है। परंतु ईर्यापथ में कषाय - रहित योग होता है और सांपरायिक में मिथ्यात्वादि कषायसहित योग होता है। मिथ्यात्व आदि आत्मा के भावरूप हैं और योग प्रवृत्तिरूप है। इससे आत्म-प्रदेश में परिस्पंदन - कम्पन होता है, मिथ्यात्व आदि में नहीं होता। इसलिए प्रवृत्ति की मुख्यता की अपेक्षा से योग-परिस्पंदन को आस्रव कहते हैं।
सारांशतः तीनों प्रकार के योग समान हैं। फिर भी यदि कषाय न हो, तो उपार्जित कर्म में स्थिति का बंध नहीं होता। स्थितिबंध का कारण कषाय है, इसलिए कषाय ही संसार का मूल कारण है। अर्थात् सकषाय जीव के आसव को सांपरायिक आम्नव और अकषाय जीव के आसव को ईर्यापथ आम्नव कहते हैं।
आस्रवों की संख्या
जीव चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रियाद्वार- ये सांपरायिक आम्रव करता है।
जिस प्रकार नौका के छिद्र द्वारा नौका में पानी आता है, उसी प्रकार योग और कषाय के द्वारा कषायों के समूह आत्मा में प्रविष्ट होते हैं। जिस प्रकार पानी से भारी बनकर नौका पानी में डूब जाती है, उसी प्रकार कर्म से भारी बनकर आत्मारूपी नौका संसार-सागर में डूब जाती है। आम्रव के कारण आत्मा का पतन होता है। ये आसव अनेक प्रकार के हैं। परंतु आनव निश्चिरूप से कितने प्रकार के हैं, इस संबंध में भिन्न-भिन्न विचार-प्रवाह हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द के मत में आस्रव चार हैं। वे हैं - (१) मिथ्यात्व आसव (२) अविरति आस्रव (३) कषाय आनव और (४) योग आम्रव।२०
आगम में आसव के पाँच भेद हैं - (१) मिथ्यात्व आम्रव (२) अविरति आसव (३) प्रमाद आनव (४) कषाय आम्रव एवं (५) योग आसव।"
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