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________________ १४५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व इनकी शुद्धि के उपाय करने चाहिए। इसीलिए गीताकार की दृष्टि में इन्द्रिय-संयम उच्च जीवन के सोपान की पहली सीढ़ी है। उस पर कदम रखे बिना कोई भी ऊपर नहीं चढ़ सकता। जो व्यक्ति अनासक्त रहकर कर्म करता है, उसके जीवन पर कर्म का किसी भी प्रकार से प्रभाव नहीं पड़ता। गीता का संदेश है कि कर्म करते रहिए परंतु कर्म-फल में आसक्त मत रहिए जो व्यक्ति कर्म-फल में अनासक्त रहता है, वही पूण्य और पाप से निर्लिप्त रहता है तथा इन सभी का त्याग कर अर्थात् कर्म-अकर्म, पुण्य-पाप से दूर रहकर मोक्ष प्राप्त करता है। __ जैन-दर्शन में भी यही कहा गया है कि यदि मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा हो तो किसी भी फल में आसक्त न होकर कर्माकर्म और पुण्य-पाप इन सब का त्याग करना चाहिए। इनका त्याग करने के पश्चात् ही मोक्ष-प्राप्ति हो सकती है भारतीय संस्कृति के सभी धर्मों में पुण्य-पाप के संबंध में मान्यताएँ तथा मोक्ष-विषयक चिन्तन करीब-करीब एक जैसा है। परंतु जैन-धर्म की यह विशेषता है कि पुण्य-पाप के विषय में या दूसरे किसी भी तत्त्व के विषय में जितना स्पष्टीकरण जैन-दर्शन में मिलता है,उतना अन्य किसी भी दर्शन में नहीं मिलता। पुण्य और पाप का ज्ञान जीवन में अतीव प्रभावकारी होता है। जिस मनुष्य को पुण्य और पाप के रहस्य का ज्ञान होता है, उसका अंतर्बाह्य जीवन ही बदल जाता है। ऐसा व्यक्ति अशुभ कर्म को भी शुभकार्य में रूपान्तरित कर सकता है। जिन-जिन बातों से मूढ-अज्ञानी मनुष्य समझते हुए या न समझते हुए पाप का उपार्जन करता है उन्हीं बातों से यह पाप-पुण्य के रहस्य को जानकार पुण्य का उपार्जन करता है। जिस वस्तु से साधारण मनुष्य पाप का उपार्जन करता है, उसी वस्तु से पाप-पुण्यज्ञ व्यक्ति पुण्य का उपार्जन करता है। वनस्पतियाँ ऑक्सीजन छोड़ती हैं। उनके द्वारा छोड़ी गयी ऑक्सीजन को मानव श्वसन द्वारा ग्रहण करता है। उस ऑक्सीजन का उपयोग स्वयं के जीवन के लिए करके उससे निर्मित कार्बन डाय-आक्साइड, मानव वातावरण में छोड़ देता है। वनस्पतियाँ उसे जीवनोपयोगी होने से ग्रहण करती हैं। इस प्रकार जीवनचक्र निसर्ग में अखण्ड रूप से चलता रहता है। इस जीवन-चक्र के समान ही पाप-पुण्य का जानकार व्यक्ति पुण्य-पापरूपी ऑक्सीजन और कार्बन डाय-ऑक्साइड में से केवल पुण्यरूपी ऑक्सीजन को ग्रहण करता है। पुण्य का सच्चा आकलन होने से व्यक्ति का सर्वदा के लिए समाधान हो जाता है। पुण्य के प्रभाव और पाप के दुष्परिणाम को ध्यान में रखकर प्रत्येक को पुण्य-पाप का रहस्य समझकर, पुण्य को संचित करना चाहिए और पाप से परावृत्त होना चाहिए। और जब प्रत्यक्ष मोक्ष-प्राप्ति का स्वर्णिम क्षण आये, तब पुण्य एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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