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________________ १४४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व विवेक ही पुण्य है जैन-शास्त्र में भगवान् महावीर ने साधक को लक्ष्य करके कहा है - "हे साधक! तू अपनी क्रिया का त्याग मत कर। तुझे लगता है कि चलने से पाप लगता है, सोने से पाप लगता है, बोलने से पाप लगता है। इसलिए खाना-पीना बन्द करके, मौन धारण करके एक स्थान पर बैठ जाएँ। परन्तु हे साधक! यह पाप से बचने का मार्ग नहीं है।" जब तक मन, वचन और काया का योग है, तब तक क्रिया बन्द नहीं हो सकती। शरीर और वाणी को मनुष्य रोक सकता है, परंतु मन की गति को रोकने में मनुष्य समर्थ नहीं है। शरीर स्थिर किया जा सकता है, लेकिन मन स्थिर नहीं हो सकता इसलिए निष्क्रिय बनने की आवश्यकता है, ऐसा नहीं है। अपितु आवश्यक यह है कि समस्त क्रियाएँ तथा समस्त कार्य सावधानी से और विवेकपूर्वक किए जाएँ। इस प्रकार जाग्रत साधक पाप से मुक्त रहता है। भगवान् महावीर कहते हैं-“अगर पाप से परावृत्त होना है, तो क्रिया से दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। बस अविवेक से दूर रहो। अज्ञान से दूर रहो। आसक्ति वासना, राग, द्वेष और तृष्णा से दूर रहो।" विवेकपूर्वक चालिए, खड़े रहिए, विवेकपूर्वक बैठिए, विवेकपूर्वक सोइये विवेकपूर्वक भोजन कीजिए विवेकपूर्वक बोलिए। विवेकपूर्वक समस्त कार्य कीजिए। फिर पाप-कर्म नहीं होगा। जिस प्रकार जैन-दर्शन में कर्म के दो भेद माने गये हैं- शुभकर्म और अशुभकर्म (जिन्हें क्रमशः पुण्य और पाप कहा गया है, उसी प्रकार गीता में भी कर्म के दो भेद माने गए हैं, वे हैं पाप और पुण्य । जब अर्जुन के समक्ष अच्छे और बुरे स्वभाव का या कर्म का प्रश्न उपस्थित होता है, तब उसके मन में शंका उत्पन्न होती है कि पाप-पुण्य का कारण क्या है? ऐसी कौन-सी शक्ति है जो मनुष्य को शुभ या अशुभ कमों की ओर आकर्षित कर लेती है? इस प्रश्न का श्रीकृष्ण ने सादा, सरल और स्पष्ट उत्तर यह दिया है कि प्रत्येक के स्वभाव में रजोगुण का अंश है। यह गुण काम-क्रोध के रूप में स्पष्ट दिखाई देता है और पाप की ओर खींच ले जाता है। क्रोध वह अग्नि है, जो अंतर्मन में हमेशा धधकती रहती है। विचार करने पर जितना ज्ञान होता है उतना दूसरे के कहने से हमें नहीं होता। बुद्धिवादी, कर्मवादी और ज्ञानयोगी इन सभी को क्रोधरूपी शत्रु का भय हमेशा रहता है। इन दोनों की मुख्य समस्या काम और क्रोध को जीत लेने की है। भगवद्गीता में काम और क्रोध का - पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच विषय पाँच महाभूत, मन और बुद्धि इतना विशाल क्षेत्र बताया गया है। सब जगह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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