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________________ १४३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व संकल्पनाओं के साथ उनका अतीव निकट का संबंध है। भारतीय तत्त्वज्ञान का कर्म-सिद्धान्त भी उनसे जुड़ा हुआ है। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से देखने पर एक बात ध्यान में आती है, वह यह कि पाप-पुण्य की कल्पनाओं में कर्म-फल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसकी उपेक्षा नहीं की गई है। इसलिए ये संकल्पनाएँ कर्त्तव्यवादी नीतिशास्त्र की अपेक्षा प्रयोजनवादी नीतिशास्त्र के अधिक नजदीक हैं। अन्य स्थानों पर पाप और पुण्य का स्वरूप देखने पर ऐसा लगता है कि जैन-दर्शन में पुण्य-पाप के सम्बन्ध में जितना विस्तृत और सुस्पष्ट विवेचन मिलता है, उतना कहीं भी दिखाई नहीं देता। जैन-दर्शन का यह वैशिष्टय है कि प्राःय सभी विषय पर उसका अत्यंत सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन दिखाई देता है : पुण्य पाप द्रव्यपुण्य पुण्यानुबन्धी पुण्य पुण्य के नौ भेद । द्रव्यपाप पापानुबन्धीपाप पाप के भावपुण्य पापानुबन्धी पुण्य भावपाप पुण्यानुबन्धीपाप अटारह भेद (१) अन्नपुण्य (१) प्राणातिपात (२) पानपुण्य (२) मृषावाद (३) लयनपुण्य (३) अदत्तादान (४) शयनपुण्य (४) मैथुन (५) वस्त्रपुण्य (५) परिग्रह (६) मनपुण्य (६) क्रोध (७) वचनपुण्य (७) मान (८) कायपुण्य (८) माया (E) नमस्कारपुण्य (E) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति और अरति (१७) मायामृषावाद (१५) मिथ्यादर्शनशल्य पुण्य -फल के बयालीस भेद हैं तथा पाप-फल के बयासी (८२) भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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