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________________ १४२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व मुल पाप के ही परिणामस्वरूप मानव में जन्मजात पापवृत्ति होती है' - यह दिया जाता है। आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर भी अज्ञान से स्वयं को बाँधकर जीवदशा तक पहुँचता है ऐसा वेदान्त का कथन है। ईसाई धर्म में आदम और ईव ने शैतान के चंगुल में फँसकर विषयरूपी सेब को खाया, यही मूल पाप मानव में परंपरा से चलता आया है, ऐसा बताया गया है। समस्त उत्तर मूल प्रश्न का उत्तर न देकर, उस प्रश्न को सिर्फ पीछे धकेलते रहते हैं। परन्तु आदम में या शैतान में या आत्मा के मूल शुद्ध स्वरूप में मूल पाप-प्रवृत्ति का उद्गम क्यों हुआ? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है। पाप-क्षालन के अनेक उपाय सभी धर्म-ग्रंथों में प्रतिपादित किये गये हैं। तीर्थयात्रा, तीर्थ-स्नान, देवदर्शन, यज्ञ, उपवास, व्रत, दान, परोपकार, प्रायचित्त, नाम-स्मरण, प्रार्थना, पश्चात्ताप और पाप का स्वीकार या पाप-कर्म का उच्चार तथा ईश्वर-शरणागति आदि अनेक मागों द्वारा पाप की निष्कृति की जा सकती है। भागवत्-सम्प्रदाय में नाम-स्मरण और ईश्वर-शरणागति को बहुत महत्त्व दिया गया है। इस्लाम धर्म में भी, हररोज की प्रार्थना समय पर करने से क्षुल्लक पाप से मुक्ति मिलती है, ऐसा कहा गया है। मनुस्मृति आदि ग्रंथों में तथा ईसाई एवं इस्लामी धर्म-ग्रंथों में भी पाप-निवेदन और पश्चात्ताप को विशेष महत्त्व दिया गया परन्तु जैन-धर्म की विशेषता यह है कि इस धर्म में - मानव मात्र का पाप कर्म का बंध कम कैसे हो सकता है? पाप-पुण्य की असली कसौटी क्या है? और विवेक से काम करने पर मानव पाप से कैसे बच सकता है? यह बताया गया ___ आध्यात्मिक दृष्टि से, स्व-स्वरूप के पास या ईश्वर के पास ले जाने वाला कार्य 'पुण्य' और आत्मस्वरूप से या ईश्वर से दूर ले जाने वाला कार्य 'पाप' कहलाता है, ऐसी व्याख्या की गयी है। यज्ञ, दान, परोपकार आदि सारे पुण्यकर्म स्वर्ग आदि भोग-सुख देने वाले हैं। उनका फल भी अशाश्वत है। ये सत्कर्म ईश्वर-स्वरूप के पास ले जाने में असमर्थ होने से, ऊपर निर्दिष्ट पुण्य की व्याख्या के अनुसार, 'पुण्य' नहीं कहे जा सकते। इसी प्रकार चौर्य, व्यभिचार आदि 'पाप' भी नहीं कहे जा सकते। इसलिए वेदांती उन्हें 'पुण्यात्मक पाप' कहते हैं और उन्हें 'पापात्मक पाप' और शुद्ध पुण्य' से अलग रखते हैं। संत ज्ञानेश्वर ने स्वर्ग में ले जाने वाले या आत्मस्वरूप के पास ले जाने वाले या मोक्ष के कारण को 'शुद्ध पुण्य' कहा है। स्वर्गा पुण्यात्मके पापे जाइजे। पापात्मके पापे नरका जाइजे। मग मातें जेणें पाविजे। ते शुद्ध पुण्य ।। - ज्ञानेश्वरी ६/३१६ उपर्युक्त विवेचन से, पाप और पुण्य इन संकल्पनाओं का स्वरूप मुख्यतः धार्मिक होता है, यह स्पष्ट होता है तथापि उनका आशय बड़े पैमाने पर नीतिशास्त्रीय है। सद्गुण, श्रेय-युक्त कर्तव्य, इच्छा-स्वातंत्र्य आदि प्रमुख नैतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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