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________________ १४१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व कोई दुष्कृत्य जब सामाजिक या सरकारी नियमों के विरुद्ध होता है, तब वह गुनाह या अपराध बनकर दण्डा बनता है। जो कानून से दण्डा नहीं है परन्तु नैतिक दृष्टि से दुष्कृत्य है 'वह कृत्य दण्डनीय नहीं हुआ' इसलिए कर्ता उसके फल से मुक्त है, ऐसा नहीं होता। ऐसे कृत्य से जो अदृष्ट उत्पन्न होता है, वही पाप है। पाप की कल्पना में मानवीय नियमों के उल्लघंन की अपेक्षा ईश्वरीय नियमों का उल्लघंन ही अभिप्रेत है। __ जिस सत्कर्म का फल यहाँ नहीं मिला, वह सत्कर्म खाली गया ऐसा मानना नीतिशास्त्रियों की अंतःप्रज्ञा को नहीं जमता। ऐसे सत्कर्म का फल कर्ता को इहलोक में या परलोक में मिलता ही है। यहाँ के सत्कर्म और उसके फल को जोड़ने वाली अदृश्य शक्ति ही पुण्य है। प्रत्येक को स्वकृत अच्छे या बुरे कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। इसीलिए 'मृत्यु के बाद जीव का किसी न किसी स्वरूप में अस्तित्त्व है' जैसे सिद्धान्तों को स्वीकार करने पर पाप-पुण्य की कल्पनाएँ अर्थपूर्ण ठहरती हैं। अधिकांश धमों में पाप-पुण्य की कल्पना मिलती है। पाप में भी महापाप और क्षुद्र या क्षुल्लक पाप जैसे भेद किये गये हैं। कात्यायन ने पाप के महापातक, अतिपातक, पातक, प्रासंगिक पातक और उपपातक - ये पाँच भेद बताये हैं। पाप के कायिक, वाचिक और मानसिक भेद भी किये जाते हैं। महापाप कौन से हैं इस विषय में मतभेद है। चोरी, गुरुपत्नी से व्यभिचार, ब्रह्महत्या, सुरापान, असत्य-भाषण और दुष्कृत्य का बार-बार आचरण ये महापाप स्मृति में बताये गये हैं।६८ छान्दोग्य उपनिषद् में चौर्य, ब्रहमहत्या, गुरुपत्नी से व्यभिचार और मद्यपान महापाप हैं, ऐसा कहा गया है। चौर्य, हिंसा, परदारगमन - ये तीन कायिक पाप हैं। असत्य, कठोरता, पैशुन्य (दुष्टता) और असंबद्ध बोलना - ये चार वाचिक पाप हैं। और दूसरे की सम्पत्ति की अभिलाषा, दूसरे का अनिष्ट-चिन्तन, झूठी बातों का अभिनिवेश - ये तीन मानसिक पाप मिलाकर दशविध पापकर्म कहे गये हैं। परोपकार पुण्य है और परपीड़ा पाप है इस अर्थ का सुभाषित प्रसिद्ध ही है। इस्लाम धर्म में भी पाप के 'सधीर' अर्थात् क्षुल्लक और 'कबीर' अर्थात् महापाप ये दो वर्ग माने गये हैं। पाप के समान पुण्य के भी कायिक, वाचिक, मानसिक, साथ ही महत् पुण्य या महापुण्य और क्षुल्लक पुण्य ऐसे भेद किए जा सकते हैं। 'मनुष्य पाप करने में क्यों प्रवृत्त होता है?' अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण ने 'रजोगुण से उत्पन्न काम और क्रोध रूप महाशत्रु मनुष्य को पापकर्म में प्रवृत्त करते हैं। इस प्रकार दिया है। परन्तु तत्त्वज्ञानियों को यह उत्तर समाधान करने वाला नहीं लगता। उनका प्रश्न मानसशास्त्रीय न होकर सत्ताशास्त्रीय है। अधिकांश धर्मों में "मानव में पाप-प्रवृत्ति क्यों?" इस प्रश्न का उत्तर 'अपने मूल स्थान से च्युत होकर आत्मा को जीव-दशा जिस मूल पाप के कारण प्राप्त हुई, उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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