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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
अच्छे आशय से जो काम किया जाता है, वह पुण्य का निमित्त है और बरे अभिप्राय से जो काम किया जाता है, वह पाप का निमित्त है। पुण्य-पाप की कसौटी सब को एक जैसी स्वीकार है, क्योंकि यह सिद्धान्त सर्वमान्य है -
'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।। साधारण लोग समझते हैं कि अमुक काम न करने पर हमें पुण्य-पाप का लेप नहीं लगता इसलिए वे उस काम को छोड़ देते हैं। परंतु प्रायः उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती। अतः इच्छा होते हुए भी वे स्वयं को पुण्य-पाप के लेप से मुक्त नहीं कर पाते। इसलिए 'सच्ची निर्लेपता क्या है' इसका विचार करना चाहिए। लेप (बन्ध) मानसिक क्षोभ अर्थात् कषाय को कहते हैं। अगर कषाय नहीं होगा तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बंधन में नहीं डाल सकती।
इसके विपरीत अगर कषाय का वेग प्रवाहित हो रहा हो तो बाहर से किये गये हजारों प्रयत्न भी हमें बंधन से नहीं बचा सकते। कषायरहित वीतराग, सर्वत्र कीचड़ में कमल की तरह, निर्लिप्त रहते हैं। परंतु कषाय-युक्त आत्मा योगी की पोशाक धारण करके तिलभर भी शुद्धि नहीं कर सकता। इससे यह स्पष्ट होता है कि आसक्ति को छोड़कर जो काम किया जाता है, वह बन्धनकारक नहीं होता अर्थात् असली निलेपता मानसिक क्षोभ के त्याग में है। यही बोध कर्म-शास्त्र में प्राप्त होता है और यही बात अन्यत्र भी कही गयी है -
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयाऽसंगी मोक्षे निर्विषयं स्मृतम्।। - मैत्र्युपनिषद्
मनुष्य का मन ही बन्ध और मोक्ष का कारण है जिसका मन विषय में आसक्त है, उसे बंध होता रहता है और जो विषयरहित है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए मानवमात्र को विषय में अनासक्त होकर सर्वप्रथम अपना मन ही पवित्र बनाना चाहिए। संसार में जिसका मन अलिप्त है, वह कभी आसक्त नहीं बनता। पुण्य-पाप उसका स्पर्श नहीं कर सकते। और ऐसा मानव भवसागर पार करके मोक्ष-शिखर पर शीघ्र ही आरूढ़ हो जाता है।
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अन्य धर्मों में पाप-पुण्य __ पाप और पुण्य नीतिशास्त्रीय और धर्मशास्त्रीय संज्ञाएँ हैं। दुष्कृत्य या सत्कृत्य करने से अदृष्ट या अपूर्व जो विशिष्ट शक्तियाँ या सामर्थ्य उत्पन्न होती हैं, उन्हें क्रमशः 'पाप' और 'पुण्य' कहते हैं। 'इष्टान्तरजनकं पुण्यम्' अर्थात् अन्य इष्ट फल उत्पन्न करने वाला 'पुण्य' होता है अथवा 'विहितात् इष्टात् जन्यं पुण्यम्' अर्थात् विहित कर्म से जो उत्पन्न होता है, वह 'पुण्य' है। ऐसी पुण्य की व्याख्याएँ मिलती हैं। उसी तरह अनिष्ट उत्पन्न करने वाला पाप है अथवा दुष्कृत्य और निषिद्ध कर्म करने से जो उत्पन्न होता है, वह 'पाप' है। ऐसी पाप की व्याख्याएँ की गयी हैं।
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