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________________ १२८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व शोक, चिन्ता, पश्चात्ताप आदि उत्पन्न नहीं होते। इसी से प्रत्येक व्यक्ति यह अनुमान लगा सकता है कि पुण्य-पाप में क्या अन्तर है।६६ जो अन्तर धूप और छाया में है वही पुण्य और पाप में भी है। व्रत तथा तप जैसा पुण्य श्रेष्ट है क्योंकि इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत अव्रत तथा अतप से निकृष्ट कोई पाप नहीं है क्योंकि इनसे नरक की प्राप्ति होती __ हेतु और कार्य की विशेषता के कारण पुण्य और पाप में अंतर है, क्योंकि पुण्य का हेतु शुभ है और पाप का हेतु अशुभ है। पुण्य का हेतु परोपकार है तो पाप का हेतु परपीड़ा है। इस संबंध में एक सुभाषित प्रसिद्ध है - अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।। परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। व्यास मुनि ने अठारह पुराणों की रचना की है। प्रत्येक मनुष्य उन सब को पढ़ नहीं सकता। इसलिए व्यासजी ने ऊपर उद्धृत श्लोक में दो ही वाक्यों में अठारह पुराणों का सार बता दिया है - ___ 'परोपकार ही पुण्य है, और परपीड़ा ही पाप है।' इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से पाप और पुण्य का अंतर स्पष्ट होता है। पाप की हेयता भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र में पाप के संबंध में बहुत कुछ लिखा गया है। क्योंकि भारतीय संस्कृति धर्मप्रधान संस्कृति है। इस संस्कृति में कर्म से धर्म को तथा पाप से पुण्य को ज्यादा महत्त्व दिया गया है। इसीलिए भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से पाप के संबंध में विचार प्रकट किये हैं। कहने की पद्धति सब की अलग-अलग होते हुए भी सारांश सब का एक ही है। वह यह कि पाप को सभी ने बुरा कहा है। अशुभ कहा है। पाप ही मनुष्य को पतन के गर्त में ले जाने वाला है। पाप ही नरक का द्वार है। पाप मनुष्य को दुःख देने वाला है इसलिए मनुष्य को पाप का त्याग करना चाहिए। जैन-दर्शन के अनुसार जो कर्म विपाक-अवस्था में अत्यंत जघन्य, भयंकर, रुद्र, भयभीत करने वाला और तीव्र दुःख देने वाला है, वह पाप है। राग-द्वेष आदि भावों से पाप-कर्म होते हैं। वस्तुतः यह मनुष्य की नीच प्रवृत्ति का द्योतक है। उसकी शुभ प्रवृत्ति के विरुद्ध आंदोलन है। पापानव जीव के अशुभ कार्य से होता जो पाप-कर्म से डरता है, वह अन्य किसी से नहीं डरता अर्थात् वह चारों ओर से निर्भय होता है। इसके विपरीत जो पाप-कर्म करने से नहीं डरता उसे दूसरे हजारों भय होते हैं।६८ । मनुष्य को सुख प्रिय होता है और दुःख अप्रिय होता है। सुख की प्राप्ति पुण्य से होती है और दुःख की प्राप्ति पाप से होती है। इसलिए पाप का परित्याग __ कर पुण्य का आचरण करना चाहिए। परंतु यह कितना विचित्र है कि मानव को For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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