________________
१२७
जैन-दर्शन के नव तत्त्व
पुण्य और पाप का अंतर इस संसार में जब हम चारों ओर देखते हैं तब हमें एक मनुष्य सुखी तो दूसरा दुःखी दिखायी देता है। इसी प्रकार एक अमीर तो दूसरा गरीब, एक सुरूप तो दूसरा कुरूप, एक ज्ञानी तो अन्य अज्ञानी, एक उच्चकुलोत्पन्न तो अन्य नीचकुलोत्पन्न - इस प्रकार की परस्पर विरोधी बातें दिखाई देती हैं। कुछ लोग ऐसे कुल में जन्म लेते हैं जहाँ उनमें धर्म के संस्कार नहीं पड़ते, जबकि कुछ सुसंस्कृत उच्च कुल में जन्म लेते हैं, जहाँ उनका विकास होता है और उनमें धर्म के संस्कार भी पड़ते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके घर में पति-पत्नी के अलावा कोई नहीं है। और वे भी अब वृद्ध होते जा रहे हैं, परन्तु उनकी सेवा के लिए कोई भी नहीं
कुछ लोग ऐसे हैं जिनके घर में धन-धान्य की विपुलता है और कुछ ऐसे हैं जिनके घर में अनाज का एक कण भी नहीं मिल सकता। कुछ लोगों के घर में
आज्ञाकारी नौकर-चाकर हैं तो कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें कोई पानी देने वाला भी नहीं है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि मानव-मानव में ऐसी विषमता क्यों है? यह विषमता किसी के द्वारा की गयी है या मनुष्य ने स्वयं ही उसको जन्म दिया है? इसका उत्तर कोई भी ज्ञानी पुरुष यही देगा कि यह विविध प्रकार की विषमता पुण्य और पाप के कारण ही है।
जिन्होंने अपने पूर्वजन्म में शुभकार्य किया है, उनका इस जन्म में पुण्यबन्ध होता है। इसी पुण्यसंचय का फल उन्हें इस जन्म में सुख, धन-धान्य, यश, बल, मित्र, उच्चकुल, वर्ण, गोत्र, सौंदर्य, सुपुत्र, संस्कारवती पत्नी, नौकर-चाकर, सम्पत्ति, घर-बार आदि के रूप में प्राप्त होता है।६५
जो लागू पूर्वजन्म में या इस जन्म में अशुभ कार्य करते आये हैं, उनका इस दुष्कृत्य के कारण ही पापबन्ध होता है और उसी पाप का फल उन्हें दुःख, दारिद्र्या, भूख, कुरूपता, कुपुत्र, कुपत्नी, नीच कुल, कुसंस्कार, बुरा वातावरण आदि के रूप में प्राप्त होता है।
सारांश यह है कि जिस कार्य से अथवा प्रवृत्ति से आत्मा में आनंद, सुख और पवित्रता का संचार होता है, जिन्हें प्रकट करने में मनुष्य कभी हिचकिचाता नहीं, वही पुण्य है। जो गुप्त है तथा छिपकर किया जाता है, वह पाप है। पाप करने वाला व्यक्ति सत्ताधारक हो या अमीर, उसमें पाप छिपाने की वृत्ति होती ही है। कोई मुझे देखेगा तो नहीं, कोई चिढ़ाएगा तो नहीं, कोई मेरी निन्दा तो नहीं करेगा, मुझ पर जुर्माना तो नहीं करेगा - ऐसी शंकाएँ सर्वदा पापकर्ता के मन में आती रहती हैं। इसीलिए वह किये हुए पापकार्य को छिपाना चाहता है। दूसरी बात यह है कि पाप करते समय उस व्यक्ति को मन ही मन भय, पश्चात्ताप और दुःख होता रहता है। यद्यपि उसने ऐसे भाव प्रकट नहीं किये, फिर भी मन में पाप का शल्य चुभता ही रहता है। पुण्यकार्य करने वाले व्यक्ति के मन में कभी भी भय,
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only