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________________ १२९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जिसका फल प्रिय है, उसका कर्म प्रिय नहीं और जिसका फल प्रिय नहीं, उसका कर्म प्रिय है। मानव पुण्य के फल की इच्छा करता है लेकिन पुण्य का आचरण नहीं करता। साथ ही पाप के फल की इच्छा नहीं करता लेकिन हमेशा पाप का आचरण करता रहता है। जीव जब दुष्कृत्य करता है तब पापकर्म के पुद्गल आकृष्ट होकर आत्मा से चिपकते हैं। ये कर्म जब उदित होते हैं, तब जीव को दुःख होता है। इस प्रकार जीव का दुःख स्वनिर्मित है। पाप-कर्म के उदय से जब दुःख उत्पन्न होता है, तब मनुष्य को शोक नहीं करना चाहिए। उदित हुए कमों के फल शान्ति से भोगने पर कर्म का क्षय होता है। जीव जैसे कर्म करता है, वैसे फल भोगने ही पड़ते हैं। जिस प्रकार धागे वस्त्र-निर्मिति के कारण होते हैं, उसी प्रकार पुण्य-कर्म सुखोत्पत्ति और पाप-कर्म दुःखोत्पत्ति के कारण होते हैं। पुण्य मित्र के समान सुमार्ग पर ले जाता है जबकि पाप दुर्जन के समान कुमार्ग पर ले जाता है, इसलिए पाप का त्याग कर पुण्य का आचरण करना चाहिए। पाप कब होता है? पाप की कालिमा मनुष्य के जीवन को अन्धकारमय और काला बना देती है। इसलिए प्रश्न उठता है -“पाप क्या है? यह कब होता है?" एक बात प्रचलित है कि स्त्री का सौंदर्य देखना पाप है, सिनेमा-नाटक देखना पाप है। कानों से मधुर संगीत सुनना पाप है। किसी एक चीज को खाना पाप है, कोई एक प्रकार का कार्य करना पाप है, इन्द्रियों को विषयभोग की तरफ ले जाना पाप है और इंद्रियों को नियंत्रण में रखना धर्म है। इसलिए लोगों ने, जो आँख स्त्री के सौंदर्य को देखती हैं, उन्हे फोड़ डालने का प्रयास किया, जो कान विकारवर्धक संगीत सुनते हैं, उनमें सई डालकर उन्हें बंद करने की कोशिश की। इसी प्रकार जो-जो इन्द्रिय विषय-भोग की ओर मुड़ीं उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न किया। जैन-दर्शन ने भी पाप को छोड़ने के लिए कहा है। व्यक्ति को जीवन के विकास के लिए सर्वप्रथम पाप का त्याग करना चाहिए। परंतु जैन-दर्शन और जैन-परम्परा के विचारकों ने इन्द्रियों के नाश की बात नहीं कही क्योंकि पाप इन्द्रिय में और इन्द्रिय के विषय में नहीं है। इसलिए पाप का परित्याग करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि पाप कब होता है और उसका बन्ध किस तरह होता है ? आँखों के सामने कोई सुंदर रूप आता है और आँखें उसे देखती हैं, कानों का स्पर्श करके कोई मधुर ध्वनि कानों में प्रवेश करती है, जिला खाद्य-पदार्थ का स्वाद लेती है, नाक सुगन्ध और दुर्गन्ध को ग्रहण करती है, त्वचा सुकोमल और कठोर पदार्थ का स्पर्श कर कोमलता और कठोरता का ग्रहण करती है, क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने विषय को ग्रहण करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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