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________________ ११३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व पुण्य निदानसहित (अमुक फल प्राप्त हो ऐसी इच्छा से युक्त) और भोगरूप होने से कुगति का कारण है। इस प्रकार के पुण्य का त्याग करना परमार्थ के लिए श्रेयस्कर है।३२ पुण्य के नौ भेद जो आत्मा को पवित्र करता है, जिसके कारण जीव को इच्छानुकूल सुख-उपभोग प्राप्त होते हैं, यश-कीर्ति मिलती है, उसे पुण्य कहते हैं। ऐसा पुण्य शुभ भावना के कारण प्राप्त होता है दीन-दुःखियों पर दया करना, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, गुणी लोगों पर प्रमोद भाव रखना, परोपकार करना आदि अनेक प्रकार से पुण्य-सम्पादन किया जाता है। जैनागम में पुण्य नौ प्रकार का कहा गया है। जो इस प्रकार हैं - (१) अन्नपुण्य (४) लयनपुण्य (७) वचनपुण्य (२) पानपुण्य (५) शयनपुण्य (८) कायपुण्य (३) वस्त्रपुण्य (६) मनपुण्य (६) नमस्कारपुण्य३३ (१) अन्नपुण्य - भूखों दुखियों या जिन्हें अतीव आवश्यकता है ऐसे व्यक्तियों को भावपूर्वक अन्न देने से जो पुण्य होता है, वह अन्नपुण्य है। (२) पानपुण्य - प्यासों को भावपूर्वक पानी देना पानपुण्य है। (३) वस्त्रपुण्य - जो वस्त्ररहित है, ठण्ड से काँप रहा है, ऐसे व्यक्ति को वस्त्र देना वस्त्रपुण्य है। (४) लयनपुण्य - आश्रयहीन यानी बेघर लोगों को आश्रय देना लयनपुण्य है। (५) शयनपुण्य - जिन्हें आवश्यकता है ऐसे जनों को निद्रा के लिए साधन देना शयनपुण्य है। (६) मनपुण्य - मन से दूसरों के कल्याण की भावना रखना और संपूर्ण विश्व का कल्याण हो ऐसी इच्छा करना। दान, शील, तप से प्राप्त होने वाला पुण्य मनपुण्य है। (७) वचनपुण्य - वचनों द्वारा अच्छे आशीर्वाद देना, किसी का भला करना, मधुर और सत्य वचन बोलना, गुणी जनों की प्रशंसा करना तथा वचन से दूसरे को सांत्वना देना वचनपुण्य है। (८) कायपुण्य - शरीर और शरीर से सम्बन्धित जितनी विद्याएँ हैं, धन तथा अन्य सुखसाधन की वस्तुएँ अथवा इन्द्रिय, बुद्धि आदि जो शरीर के अंगोपांग हैं, उनका दूसरों के कल्याण के लिए और दुःख को दूर करने के लिए उपयोग करना - कायपुण्य है। (६) नमस्कारपुण्य - विद्या, बुद्धि, वय, चारित्र्य आदि में जो बड़े हैं उनके समक्ष नम्र होना, उन्हें नमस्कार करना और उनके उपकार के लिए कृतज्ञ होना, नमस्कारपुण्य है। साथ ही उनकी सेवा-भक्ति करना तथा विनयशील व्यवहार करना भी नमस्कारपुण्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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