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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व अभयदेवकृत स्थानांगटीका में नौ प्रकार के पुण्य बताये गये हैं। उन्होंने मन, वचन और काया के स्थान पर आसन शुश्रूषा और दृष्टि - ये पुण्य बताये हैं । ३ ११४ दिगंबर-ग्रंथ सागार - धर्मामृत में प्रतिग्रहण, उच्चस्थापन, पाद- प्रक्षालन, अर्चना, प्रणाम, मनः शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषण (भोजन) - ये नौ दान के भेद कहे गये हैं । ३५ अन्न, पानी, वस्त्र, स्थान और शयन के दान से; सत्प्रवृत्त मन, वचन एवं काया की सहायता से शुभ वचन, भावना और नमस्कार करने से पुण्य का बंध होता है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अन्न, पानी, दवा आदि वस्तुओं का दान करना; विश्राम के लिए स्थान देना; मन में प्रशस्त भावना होना; वचन से मधुर, सत्य और हितकारी निर्दोष वचन बोलना; शरीर से शुभ कार्य करना; देव, गुरु और बड़ों को नमस्कार करना इन सब बातों से पुण्य मिलता है 1 पुण्य के जो नौ भेद बताये गये हैं, वे सिर्फ जैनियों के लिए ही हैं ऐसा नहीं है, वरन् किसी भी धर्म के व्यक्ति को इन नौ भेदों का पुण्य करना चाहिए । इन नौ भेदों में दान का विशेष महत्त्व बताया गया है। मन में अनुकम्पा रखकर दूसरों की मदद करना ही असली पुण्य है। जैन धर्म में दान का श्रेष्ठत्व बहुत अधिक बताया गया है। प्राचीनकाल में ऋषभदेव आदि जो चौबीस तीर्थंकर हो गये हैं, वे दीक्षा के पूर्व एक साल तक प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण-मुहरों का दान करते थे । इसीलिए जैन धर्म में दान को अग्रस्थान दिया गया है। पुण्य का संबंध शरीर से है इसलिए शरीर और शरीर से संबंधित जितनी सजीव और निर्जीव साधन-सामग्री अपने पास है, उसका उपयोग केवल अपने लिए न करके, जिन्हें उसकी अतीव आवश्यकता है, उन लोगों के लिए करने से पुण्य में वृद्धि होती है । कई लोग कहते हैं कि हमारे पास धन नहीं है, साधन-सामग्री नहीं है, फिर हमें पुण्य का उपार्जन कैसे करना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि पुण्य केवल बाहूह्य साधन-सामग्री और सम्पत्ति से ही उपार्जित नहीं किया जा सकता है अपितु शुभ भावना से भी उपार्जित किया जा सकता है । शरीर द्वारा सेवा करने से तथा बुद्धि, वाणी आदि के द्वारा सहयोग देने से भी पुण्य का उपार्जन होता है पुण्य और पाप भावना पर आधारित हैं। शुभ भावना होने पर पुण्य होता है और अशुभ भावना होने पर पाप होता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को ऐसी भावना रखनी चाहिए कि उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक कार्य तथा प्रत्येक व्यवहार पुण्यमय हो, दूसरे के कल्याण के लिये हो । 1 - पुण्य के प्रभाव से ही मनुष्य धर्म का आचरण करता है। धर्म का आचरण करने से ही मोक्ष प्राप्त होता है । इसलिए यह स्पष्ट हो जाता है कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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