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________________ ११२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व पाप हैं। शुभ और अशुभ परिणाम से जीव की जिन कर्म-वर्गणाओं (कर्म के पुद्गल-स्कन्धों यानी कर्मसमूहों ) का ग्रहण होता है, वे क्रमशः द्रव्यपुण्य हैं। जीव के शुभ परिणाम भावपुण्य हैं। शुभ परिणाम से पुद्गल के जो कर्मवर्गणारूप शुभ पुद्गल आत्म-प्रदेश में प्रवेश कर उसके साथ बँध जाते हैं। वे द्रव्य पुण्य हैं। भावपुण्य के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सवेंदनीय आदि शुभप्रकृतिरूप पुद्गल-परमाणुओं का पिण्ड द्रव्यपुण्य है। __दान, पूजा, षडावश्यक आदि रूप जीव के शुभ परिणाम भावपुण्य हैं। दूसरे के लिए शुभ भावना का चिंतन करना भी भावपुण्य है।३० इष्ट पदार्थ की प्राप्ति जिस कारण से होती है, वह द्रव्यपुण्य है। पुण्य के अन्य दो भेद : (१) पुण्यानुबंधी पुण्य एवं (२) पापानुबंधी पुण्य जो पुण्य, पुण्य की परम्परा को जन्म देता है अर्थात् जिस पुण्य को भोगते समय पुण्य का बंध होता है, वह पुण्यानुबंधी पुण्य है। उदाहरणार्थ पूर्वजन्म के पुण्य से सब प्रकार के सुखसाधन प्राप्त हुए। यदि वह मोह के कारण उनसे मत्त न होकर आत्महित के उद्देश्य से मुक्ति की अभिलाषा करता है और पूर्वजन्म के पुण्य का उपभोग कर नए पुण्य का बंध करता है तो वह पुण्यानुबंधी पुण्य है। जो पुण्य नये पाप के बंध का कारण बनता है वह पापानुबंधी पुण्य है। अर्थात् पूर्वजन्म के पुण्य के कारण सब सुखोपभोग के साधन उपलब्ध हैं तथापि मोह की प्रबलता के कारण असदाचारी बनकर पाप करना - पापबन्ध का कारण होने से पापानुबंधी पुण्य है। पुण्यानुबंधी पुण्य की उपमा पथ-प्रदर्शक से दी जा सकती है। यह पुण्य पथ-प्रदर्शक के समान मोक्ष का मार्ग दिखाता रहता है। पापानुबंधी पुण्य की उपमा चोर से दी जा सकती है। जिस प्रकार चोर संपत्ति लूटकर लोगों को भिखारी बनाता है, उसी प्रकार पापनुबंधी पुण्य भी जीव को भिखारी के समान बनाता है। वह पुण्य की सारी संपत्ति लूट लेता है। इस दृष्टि से पुण्य को उपादेय और पाप को हेय माना गया है। __ जीव के दया, दान आदि रूप शुभ परिणाम को पुण्य कहा गया है। सामान्य लोगों को पुण्य आकर्षक लगता है, परन्तु ज्ञानी लोगों को पुण्य पाप के समान ही बंधनरूप लगता है। वस्तुतः पुण्य, पाप के समान अनिष्ट नहीं है, ऐसा ज्ञानी भी कहते हैं। इसीलिए वे एक सीमा तक पुण्य-प्रवृत्ति का आचरण करते रहते हैं। उनका यह पुण्य पुण्यानुबंधी पुण्य है और मोक्ष का कारण है। सामान्य लोगों के लिए पाप से पुण्य ज्यादा अच्छा है परन्तु उनका पुण्य तृष्णायुक्त होने से पापानुबंधी होता है, वह संसार में डुबोने वाला होता है। इस प्रकारके पुण्य का त्याग असत्य आवश्यक है। सम्यक्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबन्धी पुण्य है और मिथ्यादृष्टि का पुण्य पापानुबंधी पुण्य है। सम्यक्दृष्टि का पुण्य तीर्थकर-प्रवृत्ति आदि के बंध के कारण विशिष्ट प्रकार का है और मिथ्यादृष्टि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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