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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जीव पूर्वकृत कर्म से ही फल भोगता है। जो जीव दुःखी हैं, वे अपने द्वारा किये गये दुष्कृत्यों से दुःखी होते हैं। जैसे दुष्कृत्य होते हैं, वैसे ही उनके परिणाम होते हैं।२५
जीव जब दुष्कृत्य करता है तब पाप-कर्म का बंध होता है, और जब पाप-कर्म का बंध होता है, तब दुःख उत्पन्न होता है। उसमें कर्म-पुद्गल का दोष नहीं होता वरन् दुष्ट आत्मा का दोष होता है।
आत्मा स्वयं अपने सुख-दुःख को उत्पन्न करता है। पाप का आचरण करने वाला आत्मा नरक की वैतरणी नदी है क्योंकि पाप नरक का हेतु है। इसलिए ऐसा आत्मा यातनाओं का हेतु होने के कारण नरक में विद्यमान कूटशाल्मली वृक्ष के समान है। इसी प्रकार पुण्य करने वाला आत्मा स्वयं ही इष्ट स्वर्ग और अपवर्ग का सुख अर्थात् मोक्ष देने वाला होने से कामधेनु है, और चित्ताहलादक होने से नन्दनवन के समान है। आत्मा स्वयं ही स्वयं का मित्र और शत्रु है अर्थात् आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है।६।।
इस प्रकार सुख-दुःख देने वाला दूसरा कोई नहीं अपितु स्वयं का आत्मा ही है। उसका निवारण करने वाला भी आत्मा ही है। जब आत्मा दुराचरण में फंसता है, तब वह उसका शत्रु बनता है और जब आत्मा सदाचरण करता है, तब वह उसका मित्र होता है।
जो दुःख स्वयंकृत है, उसके आने पर दुःखी नहीं होना चाहिए। इस दुःख से मुक्त होने का मार्ग दुःख, शोक या संताप नहीं है। अपितु ऐसा विचार करना चाहिए कि मैंने जो कुछ किया, यह उसी का फल है। मैंने अगर ऐसा कर्म नहीं किया होता तो मुझे दुःख प्राप्त नहीं होता। यदि मैंने आज दुष्कृत्य नहीं किया, तो भविष्य में मुझे दुःख नहीं मिलेगा। कृतकर्म का आत्मा द्वारा भोग किये जाने पर ही उसकी कर्म से मुक्ति होती है अथवा तप द्वारा उसका क्षय किया जा सकता है।
सूत्रकृतांग आगम में कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि मैं ही दुःखी नहीं हूँ। संसार में रहने वाले समस्त प्राणी दुःखी हैं। दुःख उत्पन्न होने पर क्रोधादि से रहित होकर उसे समभावपूर्वक सहन करें, दुःखी न हों।
जो मनुष्य दुःख उत्पन्न होने पर शोकविहल होता है, और मोह से ग्रस्त होकर कामभोग की लालसा से पाप करता है, वह अतीव दुःख का संचय करता है। इसके विपरीत जो समभाव से दुःख सहन करता है शोकविहल नहीं होता वह कर्मों का क्षय करता है और दुःख से दूर रहकर सुख का संचय करता है।
द्रव्यपुण्य तथा भावपुण्य । शुभ कर्म से पुण्य होता है - पुण्य के दो भेद हैं। द्रव्यपुण्य और भावपुण्य। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में कहा है कि जिसमें मोह, राग एवं द्वेष होते हैं, उसे अशुभ परिणाम भोगने पड़ते हैं। जिसका चित्त निर्मल है उसे शुभ
परिमाण की प्राप्ति होती है। जीव के शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम Jain Education International
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