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________________ चतुर्थ अध्याय पुण्यतत्त्व और पापतत्त्व [Virtue & Sin] जैन- दर्शन के नव तत्त्वों में से जीव और अजीव इन तत्त्वों का विवेचन द्वितीय एवं तृतीय अध्यायों में किया गया। तीसरे पुण्य तत्त्व का और चौथे पाप तत्त्व का विवेचन चतुर्थ अध्याय में किया जायेगा । भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों ने पुण्य-पाप के संबंध में खूब लिखा है। मीमांसा दर्शन ने पुण्य-साधना पर बहुत जोर दिया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार पुण्य के द्वारा सुख प्राप्त करना और उसका उपभोग करना ही जीवन का ध्येय बताया गया है। परन्तु जैन- दर्शन में पुण्य को इतना महत्त्व नहीं दिया गया है । जिस व्यक्ति को आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है, जो व्यक्ति धर्म का स्वरूप नहीं जानता, वही पुण्य को अधिक महत्त्व देता है तथा पुण्य ही साधन है, पुण्य ही सब कुछ है ऐसा कहता है । परन्तु जैन दर्शन का मत है कि पुण्य संसार में परिभ्रमण कराने वाला है । वह आत्मा को संसार से बाँधने वाला है, मुक्त करने वाला नहीं है। जैसे पाप बंधन है, वैसे ही पुण्य भी बंधन है । परन्तु पुण्य- पाप में फर्क इतना ही है कि पाप लोहे की बेड़ी है तो पुण्य सोने की बेड़ी है । लोहे की बेड़ी काली होने से अच्छी दिखाई नहीं देती जबकि सोने की बेड़ी चमकदार होने से सुंदर दिखाई देती है । परन्तु सोने की बेड़ी चमकदार होने पर भी बंधनकारक ही होती है। वह भी व्यक्ति को बाँधकर रखती है। 1 सोने की बेड़ी तथा लोहे की बेड़ी दोनों ही आत्मा की परतंत्रता का कारण हैं । किन्तु इष्ट फल और अनिष्ट फल के भेद से पुण्य और पाप में भेद है 1 जो इष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय आदि विषयों के हेतु हैं, वे पुण्य हैं। और जो अनिष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय आदि के कारण हैं, वे पाप हैं। शुभ योग से पुण्य का आसव और अशुभ योग से पाप का आस्रव होता है ।' तलवार के सोने की बनी हुई होने से उसमें कोई अन्तर नहीं आता । वह सोने की होने पर भी प्राणनाशक ही होती है। इसलिए पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य सुशील न होकर कुशील है, उपादेय ( ग्राह्य) न होकर हेय ( त्याज्य ) है । पुण्य को आज की भाषा में प्रथम श्रेणी का कारावास और पाप को कठोर कारावास कहा जा सकता है। मोक्षप्राप्ति की दृष्टि से दोनों ही त्याज्य हैं। पुण्य-पाप के लिए सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी का दृष्टान्त पंचास्तिकाय में भी दिया गया है। जिस प्रकार लोहे की बेड़ी मनुष्य को बद्ध करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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