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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
किया गया है। चौथे श्लोक में परमात्मपद की प्राप्ति करने वाली आत्माओं को नमस्कार किया गया है। पांचवें श्लोक में जिनवाणी की स्तुति कर उसे नमस्कार किया गया है। छठवें श्लोक में अम्बिकादेवी का गुणगान कर उन्हें नमस्कार किया गया है। सातवें एवं आठवें श्लोक में गुरु की महिमा का बखान करके उन्हें नमन किया गया है । अन्तिम दो श्लोकों में ग्रन्थकार ने ज्ञान - दर्शन एवं चारित्र को कैवल्य का कारण बताकर आदिजिन, अर्थात् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित आचारमार्ग को प्रमाणरूप माना है।
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यह
ग्रन्थ के अंत में विस्तृत ग्रन्थप्रशस्ति भी मिलती है, जिसमें ग्रन्थकार ने अपनी गुरु- परम्परा का उल्लेख करते हुए, इस ग्रन्थ में सहायभूत मुनियों का भी उल्लेख किया है। इसके साथ ही इस ग्रन्थप्रशस्ति में ग्रन्थ के रचनाकाल, रचनास्थल, आदि का भी निर्देश किया गया है। ग्रन्थप्रशस्ति के अनुसार " ग्रन्थ कल्पवृक्ष की उपमा से उपमित अनंतपाल राजा के राज्य में जालंधर नगर के नन्दनवन में विक्रम संवत् १४६८ में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में पूर्ण हुआ । ग्रन्थप्रशस्ति में न केवल ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा का ही उल्लेख किया है, वरन् इसके साथ ही उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना के प्रयोजन सम्बन्धी विचारों को भी अभिव्यक्त किया है। ग्रन्थप्रशस्ति के अन्त में ग्रन्थकार ने, यह चिरकाल तक स्थाई रहे- ऐसी कामना भी अभिव्यक्त की है।
आचारदिनकर में वर्णित विभिन्न संस्कार
आचारदिनकर गृहस्थ, साधु तथा गृहस्थ एवं साधु- दोनों से सम्बन्धित विधि-विधानों का आकार - ग्रन्थ है। वस्तुतः यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में गृहस्थ एवं मुनि - जीवन सम्बन्धी षोडश संस्कारों का उल्लेख किया गया है तथा द्वितीय खण्ड में मुनि तथा गृहस्थ सम्बन्धी आठ सामान्य संस्कारों की विस्तृत चर्चा की गई है। इस प्रकार यह ग्रन्थ कुल चालीस उदयों में समाप्त हुआ है। द्वितीय खण्ड के अन्त में ग्रन्थकार ने “ व्यवहार - परमार्थ" के माध्यम से इन संस्कारों के किए जाने के क्या प्रयोजन हैं- इसका भी उल्लेख किया है।
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प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित चालीस उदयों की विषय-सामग्री, अात् चालीस संस्कारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
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आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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