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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
दिगम्बर-परम्परा में भी यह संलेखना-विधि अन्तिम समय की आराधना हेतु ही की जाती है। वैदिक-परम्परा में इस विधि का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ३३. प्रतिष्ठा-विधि
___ आचारदिनकर के अनुसार- "इस संस्कार का प्रयोजन पाषाण, काष्ठ एवं रत्नादि से निर्मित देवप्रतिमा आदि में मंत्रादि द्वारा देवत्व का प्रवेश करवाना है।"१ दिव्यशक्ति के संचरण के अभाव में प्रतिमा लोगों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं करती है, अतः उसमें आकर्षण-शक्ति पैदा करने तथा उसके प्रभाव में वृद्धि करने के उद्देश्य से यह संस्कार किया जाता है। “प्रतिष्ठा-विधि में स्नात्र-विधि से परमात्मा की जो पूजा की जाती है, वह शुभध्यान तथा जन्मकल्याणक की प्राचीन परम्परा के निर्वाह हेतु की जाती है। इस प्रकार प्रतिष्ठा-विधि से सम्बन्धित क्रियाओं का भी कुछ-न-कुछ प्रयोजन है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी प्रतिष्ठा की विधि पाषाण की प्रतिमा में देवत्व के प्रवेश के उद्देश्य से ही की जाती है। ३४. शान्तिक-कर्म
___जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है, इस संस्कार का प्रयोजन शान्ति सम्बन्धी विधि-विधान करना है। व्यक्ति कोई भी शुभ कार्य प्रारम्भ करता है, तो उस कार्य में अनेक विघ्न आते हैं, जो उस कार्य की सिद्धि में बाधक होते हैं। उन विघ्नों का निवारण करने हेतु शान्तिककर्म-विधान किया जाता है। सामान्यतः, दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी यह संस्कार इसी उद्देश्य से किया जाता है। ३५. पौष्टिक-कर्म
इस संस्कार का भी मुख्य प्रयोजन कार्य की सिद्धि करवाना है। किसी भी कार्य के आरम्भ में पौष्टिक-कर्म किया जाना आवश्यक है, जिससे कार्य पुष्टता को प्राप्त करे। यह क्रियाविधि पुष्टि-कर्म (पौष्टिक-कर्म) कहलाती है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी यह विधि-विधान इसी प्रयोजन से किया जाता है।
" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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