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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
३०. साधु-साध्वी की अहोरात्रि की चर्या-विधि
इस विधि का मुख्य प्रयोजन साधु-साध्वी की दिन एवं रात्रि-चर्या का उल्लेख करना है, "जिससे दुराग्रह न रहे।"५६ जीव में अनादिकाल के जो संस्कार रहे हुए हैं, उनके फलस्वरूप उसे जो अच्छा लगता है, उस कार्य को तो वह करता है, किन्तु उसे जो अच्छा नहीं लगता है, उस कार्य की वह उपेक्षा करता है। साधुजीवन ग्रहण करने के पश्चात् भी ऐसा दुराग्रह न रहे तथा साधु अपनी दिनचर्या के प्रति सजग रहे- इस उद्देश्य से यहाँ साधु-साध्वी की अहोरात्रिचर्या का वर्णन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में भी इन क्रियाओं का मूल प्रयोजन संयम-भाव को पुष्ट करना ही है। इस प्रकार इस विधि का प्रयोजन साधु-साध्वी की दिनचर्या को नियन्त्रित करना है। ३१. साधु-साध्वी की ऋतुचर्या-विधि
आचारदिनकर के अनुसार “इस विधि का प्रयोजन सर्व करणीय एवं अकरणीय कार्यों का सम्यक् ज्ञान प्रदान करना है।"६६ राग, द्वेष, आदि का हरण करने वाली विहार-विधि तथा विशिष्ट तप, स्थिरवास, लोच, मलमूत्रादि के उत्सर्ग (त्याग) की विधि को जानने तथा भाषा-समिति के निर्वाह के लिए ये विधि-विधान आवश्यक हैं।" दिगम्बर-परम्परा में एवं वैदिक-परम्परा में यद्यपि इस प्रकार के विधि-विधान का पृथक् से कोई उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु इन परम्पराओं के ग्रन्थों में यत्र-तत्र इनसे सम्बन्धित कुछ उल्लेख अवश्य मिलते हैं, उनका भी प्रयोजन कषाय तथा इन्द्रियों का निग्रह करने वाले अकरणीय कार्यों का वर्जन करना एवं प्रत्येक क्रिया का सम्यक्रूपेण सम्पादन करना है। ३२. अन्तिम संलेखना-विधि
इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन मुनि को जीवन के अन्तिम क्षणों में आराधना करवाना है। इसमें “साधु-साध्वियों को क्षमायाचना, आलोचना, आदि का जो विधि-विधान बताया गया है- उसका प्रयोजन कर्म, कषाय, आदि क्षय करना तथा अन्तिम समय में शुभ ध्यान, आदि की प्राप्ति करवाना है। साधु एवं श्रावकों द्वारा मुनि के शव की जो क्रिया की जाती है, वह उनकी सनाथता के आख्यापन हेतु तथा उनका पुनः जन्म न हो- इस उद्देश्य से की जाती है।"
५६आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. * आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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