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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
२७. साध्वी (व्रतिनी) की दीक्षा-विधि
यद्यपि साध्वी की दीक्षा भी साधु के समान ही होती है, किन्तु उसमें कुछ विधियाँ ऐसी होती हैं, जो दीक्षाप्रदाता आचार्य नहीं कर सकते हैं, यथा- वेशदान करना, चोटी लेना, इत्यादि। यह सब कार्य वरिष्ठ साध्वी द्वारा ही करणीय है। इसी उद्देश्य से इस संस्कार-विधि का पृथक् से उल्लेख किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में हमें इस संस्कार का पृथक् से कोई उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि वे स्त्रियों में महाव्रतों का आरोपण उपचार से ही मानते हैं, परमार्थतः नहीं। फिर भी दिगम्बर-परम्परा में स्त्रियों की आर्यिका-दीक्षा होती है। वैदिक-परम्परा में सामान्यतया स्त्री के लिए संन्यास का वर्जन किया गया है, फिर भी कुछ परम्पराओं में वहाँ भी स्त्रियों को संन्यास दिया जाता है। २८. प्रवर्तिनी-पदस्थापन-विधि
साध्वी-संघ का सम्यक् प्रर्वतन करने के उद्देश्य से प्रवर्तिनी-पदस्थापन की विधि की जाती है। इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन साध्वी-समुदाय को वाचना प्रदान करने तथा उनका प्रवर्तन करने हेतु योग्य साध्वी को इस पद पर स्थापित करना है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में हमें इस प्रकार के किसी संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। २६. महत्तरा-पदस्थापन-विधि
इस संस्कार का प्रयोजन आचार्य-पद की भाँति ही साध्वियों में किसी योग्य साध्वी को महत्तरा-पद पर नियुक्त करना है। यद्यपि महत्तरा-पद पर विराजित साध्वी को श्रमणी संघ (साध्वी-समुदाय) के प्रशासन का पूर्ण अधिकार होता है, किन्तु महत्तरा होने के बावजूद भी कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो उनके लिए निषिद्ध होते हैं, यथा- साध्वियों को उपस्थापनारूप बड़ी दीक्षा देना, प्रवर्तिनीपद प्रदान करना, इत्यादि। इन कार्यों को छोड़कर साध्वी-संघ के शेष प्रशासनिक अधिकार देने के उद्देश्य से यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी महत्तरा-पद की नियुक्ति प्रायः इसी उद्देश्य से की जाती है। वैदिक-परम्परा में इस पद का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि उस परम्परा में संन्यासिनियों का कोई संघ नहीं होता है।
मूलाचार का समीक्षात्मक, अध्ययन, डॉ. फूलचंद्र जैन, अध्याय-५, पृ.-४३३, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६८७.
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