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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
वैदिक-परम्परा में उपाध्याय का कार्य भी शिष्यों को अध्ययन कराना है, किन्तु उसका मुनि या संन्यासी होना आवश्यक नहीं है। २५. आचार्य-पदस्थापन-विधि
इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन किसी योग्य मुनि को आचार्य-पद पर नियुक्त करना है। ज्ञातव्य है कि वाचनाचार्य एवं उपाध्याय पर मुख्यतः शिष्यों के अध्यापन का दायित्व होता है, जबकि आचार्य समग्र संघ का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होता है। संघ का संचालन वही व्यक्ति कर सकता है, जो प्रभावशाली तथा गुणवान् हो, क्योंकि जो व्यक्ति प्रभावशाली एवं गुणवान् होता है, उसी का प्रभाव संघ या समाज पर पड़ता है। जैसा कि आचारदिनकर में भी कहा गया है“आचार्य पद को धारण करने वाला मुनि प्रभुत्वशाली, ज्ञानी, तपस्वी, सज्जन, गुणवान्, प्रतिबोध देने में समर्थ, विशेषलब्धि को प्राप्त, क्षमावान्, आदि गुणों को धारण करने वाला तथा प्रभावशाली होना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार के गुणों से युक्त मुनि का समाज पर प्रभाव पड़ता है।"६५ इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन योग्य मुनि को संघ के प्रशासन की बागडोर सौंपना है। दिगम्बर-परम्परा में भी यह संस्कार इसी प्रयोजन से किया जाता है। २६. प्रतिमोहन-विधि
आचारदिनकर के अनुसार “इस संस्कार का प्रयोजन पूर्णरूप से योगसिद्धि; अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का अनुशासन, निरागता, एवं विषयों का परित्याग करना है।"१६ इस संस्कार के माध्यम से मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों को क्रमशः निरुद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। फलतः, एक समय ऐसा आता है कि व्यक्ति योग की सिद्धि, अर्थात अपनी चेष्टाओं एवं वृत्तियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है। इस संसार में आत्मलक्ष्यी जीव का मुख्य लक्ष्य आत्मस्वभाव को ही प्राप्त करना है और उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही साधु-साध्वियों द्वारा इन द्वादश प्रतिमाओं का वहन किया जाता है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में हमें इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि प्राचीनकाल में दिगम्बर-परम्परा में प्रतिमावहन किया जाता था।
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, प्र.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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