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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
पर उन शब्दों का प्रभाव पड़ता है, इसलिए हर व्यक्ति अपने लिए अच्छे विशेषणयुक्त शब्दों को सुनना पसन्द करता है, क्योंकि इन्हीं शब्द-विशेषणों के आधार पर उसका समाज के साथ परिचय होता है, उसका स्वरूप प्रकट होता है।" इस प्रकार नाम सामाजिक-व्यवहार हेतु आवश्यक है, क्योंकि समाज के सारे ही व्यवहार इसी आधार पर चलते हैं। जैसा कि वर्धमानसूरि ने स्वयं भी आचारदिनकर में कहा है- “नामकरण-संस्कार आह्वान एवं प्रेषण का हेतु है", इसलिए शिशु को इस संस्कार से संस्कृत किया जाता है।
इसके अतिरिक्त शिशु के भविष्य को जानने के लिए भी नामकरण-संस्कार किया जाना आवश्यक है, क्योंकि नामाक्षरों के बिना उसके भविष्य को जानने का और कोई उपाय नहीं है, इसलिए भी यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी यह संस्कार इसी प्रयोजन से किया जाता है। ६. अन्नप्राशन-संस्कार
बालक जब लगभग छः महीने का हो जाता है, तब उसे दूध के अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ खाने को दी जाती हैं। यह क्रम धीरे-धीरे आरम्भ किया जाता है, क्योंकि यदि उसे जन्म के साथ ही एकसाथ अधिक मात्रा में या भारी आहार दिया जाए, तो उसका पेट खराब हो सकता है। पाचन-तन्त्र बिगड़ जाने पर शिशु मात्र अनेक रोगों से ग्रसित ही नहीं हो जाता है, वरन् कभी-कभी तो उसकी इहलीला भी समाप्त हो जाती है, किन्तु आयु बढ़ने के साथ-साथ उसका शरीर धीमे-धीमे इतना सुदृढ़ होने लगता है कि वह हल्के आहार को पचा सकता है, इसलिए उसकी शरीर की आवश्यकता को देखते हुए, उसे इस संस्कार के माध्यम से सर्वप्रथम अन्न का आहार करवाया जाता है। आचारदिनकर के अनुसार "इस संस्कार का प्रयोजन देह को आरोग्यता प्रदान करना है, क्योंकि शुभ मुहूर्त में किया गया आहार देह को आरोग्यता प्रदान करता है"३ तथा देह को पुष्ट बनाता है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी यह संस्कार इसी प्रयोजन से किया जाता है।
" षोडश संस्कार विवेचन, पं.श्रीराम शर्मा, पृ.-५.१०, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, प्रथम संस्करण १६६५
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. १३ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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