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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 37 १०. कर्णवेध-संस्कार आचारदिनकर व्यवहारपरमार्थ नामक प्रकरण में इस संस्कार के प्रयोजन से सम्बन्धित गाथा का उल्लेख नहीं मिलता है। वहाँ हमें इससे सम्बन्धित मात्र अर्द्ध श्लोक ही उपलब्ध है, किन्तु निश्चित रूप से इस संस्कार को किए जाने के पीछे कोई उद्देश्य रहा होगा। सामान्यतया, यह माना जाता है कि कर्ण-छेदन करवाने से व्यक्ति अनेक रोगों से बच जाता है। वर्तमान में एक्यूप्रेशर, एक्यूपंचर, आदि चिकित्सा-प्रणाली भी इस बात को स्वीकार करती हैं कि कान के अमुक भाग में छेद करवाने से “अण्डकोश की वृद्धि तथा आन्त्रवृद्धि का निरोध होता है।" यद्यपि प्रारम्भ में इस संस्कार का प्रचलन अलंकरण पहनाने हेतु हुआ होगा, किन्तु अब इस संस्कार के किए जाने से होने वाले लाभों को प्रत्यक्ष में अनुभूत किया जा रहा है। सुश्रुत का भी कथन है- “रोग, आदि से रक्षा तथा भूषण या अलंकरण के निमित्त बालक के कानों का छेदन करना चाहिए।" इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन रोग, आदि से रक्षा करना तथा भूषण के निमित्त कानों का छेदन करवाना था। दिगम्बर-परम्परा में इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में भी यह संस्कार इसी प्रयोजन से किया जाता है। ११. चूड़ाकरण-संस्कार आचारदिनकर के अनुसार- "केश का अपनयन किए बिना व्रत-बन्धादि कर्म नही होते है, इसलिए यह संस्कार किया जाना आवश्यक है। दूसरे, इस संस्कार को किए जाने का आध्यात्मिक-उद्देश्य व्यक्ति के संसार-परिभ्रमण का उन्मूलन करना है, क्योंकि केश दैहिक-सौन्दर्य के प्रतीक हैं। केशों के उच्छेद से ही परमात्मा के समक्ष देहार्पण सम्भव होता है। जब तक संसाररूपी राग का उच्छेद नहीं होता है, तब तक परमात्मा के समक्ष अपना पूर्ण समर्पण भी सम्भव नहीं होता है, इसीलिए गृहस्थ-जीवन के व्रतों को स्वीकार करने तथा प्रव्रज्या धारण करने, आदि में मुण्डनकर्म आवश्यक है। इस संस्कार से देह के प्रति आसक्ति के भाव का निरास होता है, इसलिए जन्म-मरण के उच्छेदरूप देहासक्ति का क्षय करने हेतु यह संस्कार किया जाता है। गीता में कहा गया है कि संसाररूपी वृक्ष का मूल ऊपर एवं शाखाएँ नीचे हैं। मानव-शरीर में केश मूल (जड़ों) के रूप में ४४ देखेः हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-छ: (षष्ठ परिच्छेद), पृ.-१२८, चौखम्भा विद्याभवन, __वाराणसी, पंचम संस्करण १६६५. ४५ देखेः हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-छः (षष्ठ परिच्छेद), पृ.-१२८, चौखम्मा विद्याभवन, __ वाराणसी, पंचम संस्करण १६६५. ४६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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