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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन ६. षष्ठी-संस्कार आचारदिनकर के अनुसार यह संस्कार शिशु के मंगल हेतु किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से उसके शरीर की अधिष्ठिता माता की पूजा की जाती है, साथ ही जो मातृका-देवियाँ लोक में प्राणियों की रक्षा के लिए परिभ्रमण करती हैं, उनकी पूजा शिशु की रक्षा के लिए की जाती है।"३६ दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार नहीं किया जाता है। हिन्दू-परम्परा में यद्यपि मातृका-पूजन का तो उल्लेख मिलता है, किन्तु हिन्दू-परम्परा में इसे पृथक् संस्कार के रूप में नहीं माना गया है। ७. शुचिकर्म-संस्कार शुचिकर्म-संस्कार का मूल प्रयोजन शुद्धिकरण करना है। प्रसव होने के बाद भी स्त्री कुछ समय तक दूषित रक्त के प्रवाह से ग्रसित रहती है, जिससे अनेक दोषों एवं संक्रामक रोगों की सम्भावना बनी रहती है। उन दोषों को दूर करने हेतु शुचिकर्म-संस्कार किया जाता है। जैसा कि आचारदिनकर में भी कहा गया है- "शुचिकर्म-संस्कार के माध्यम से स्नानादि कर्म द्वारा प्रसूति होने के पश्चात् बहने वाले दूषित रक्त से उत्पन्न दोषों का उन्मूलन किया जाता है।" इसके साथ ही विप्रादि चारों वर्ण के शौच के लिए अधिकाधिक दिन की जो संख्या बताई गई है, उसका उद्देश्य मात्र उच्च एवं निम्न जाति के कर्म को अभिव्यक्त करना ही नहीं है, अपितु जिन वर्गों में सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है, उनमें कम-से-कम दिनों के पश्चात् और दूसरे वर्गों में कुछ अधिक दिनों के पश्चात् यह शुचिकर्म-संस्कार किया जाता है, इस विषय को स्पष्ट करना भी है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इस संस्कार का पृथक् से कोई उल्लेख नहीं मिलता है, वहाँ इसे जातकर्म-संस्कार में ही निहित मान लिया गया है। ८. नामकरण-संस्कार __ "नामकरण-संस्कार का प्रयोजन बालक को समाज से एवं समाज को इस अवतरित आगन्तुक से परिचित कराना है। किस नाम से उसे समाज जाने या किस नाम से उसे सम्बोधित किया जाए? इस समस्या के समाधान हेतु यह संस्कार किया जाता है। नाम केवल शब्दों का समूह ही नहीं है, उन शब्दों के पीछे भावना भी संलग्न है। अच्छे या बुरे शब्द मन पर अच्छा या बुरा असर डालते हैं। जिसने कहा है, जिसने सुना है या जिसके प्रति कहा गया है, उन सभी ३६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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