SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 34 ४. सूर्य-चन्द्रदर्शन संस्कार वर्धमानसूरि के अनुसार " इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को प्रत्यक्षतः सृष्टि के दर्शन कराना है। इस संस्कार के माध्यम से ही बालक को सर्वप्रथम विश्व को प्रकाशित करने वाले सूर्यदेव एवं चन्द्रदेव के दर्शन करवाए जाते हैं। सूर्य तेजस्विता का प्रतीक है, तो चन्द्रमा शीतलता का । शिशु में इन दोनों गुणों का आविर्भाव हो, इस उद्देश्य को लेकर भी यह संस्कार किया जाता होगा- ऐसा हम मान सकते हैं। हिन्दू परम्परा में यह संस्कार शिशु को प्रथम बार शुद्ध वायु का सेवन कराने के उद्देश्य से किया जाता है। इस संस्कार में शिशु को सूर्य-चन्द्रदर्शन भी करवाया जाता है। यद्यपि दिगम्बर - परम्परा में इस संस्कार में शिशु को सूर्य-चन्द्रदर्शन करवाने का उल्लेख तो नहीं मिलता है, किन्तु प्रियोद्भव - संस्कार के अन्तर्गत ही शिशु को तारों से सुशोभित आकाश के दर्शन करवाए जाते हैं। इस प्रकार इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को शुद्ध वायु के सेवन एवं परिवेश से परिचित कराना माना जा सकता है। ३६ ५. क्षीराशन- संस्कार ,,३८ आचारदिनकर के अनुसार इस संस्कार का मूल प्रयोजन “शिशु को जन्म के बाद प्रथम बार माता के दुग्ध का पान कराना है।' बालक के लिए सबसे सात्त्विक एवं सुपथ्य आहार दूध ही है। दूध का आहार ही शिशु के स्वास्थ्य हेतु लाभकारी होता है, क्योंकि नवजात शिशु की आंतें, आमाशय, आदि इतने कमजोर होते हैं कि वह भारी, मिर्च-मसाले वाले, चटपटे पकवान तथा मिष्ठान्न को पचा ही नहीं पाता है। इनका सेवन करवाने पर शिशु का कोमल शरीर प्रतिक्रियास्वरूप अनेक प्रकार के रोगों से आक्रांत हो सकता है, अतः इस समस्या के समाधान शिशु को विधि-विधानपूर्वक माता के दुग्ध का पान करवाया जाता है, जिससे शिशु की देह निरोग रहे। दिगम्बर एवं वैदिक - परम्परा में इस संस्कार का पृथक् से कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इस संस्कार को उन्होंने जातकर्म के अन्तर्गत ही मान लिया है। साध्वी मोक्षरत्ना श्री ३५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ३६ हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-छः (तृतीय परिच्छेद), पृ. १११, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, पंचम संस्करण १६६५. ३७ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु.- डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व - उनचालीसवाँ, पृ. ३०६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००. ३८ 'आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy