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साध्वी मोक्षरला श्री
कल्प का विचार करते हुए इनसे सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख किया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में छेद प्रायश्चित्त की इस जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति का एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष एवं प्रतिसेवना के आधार पर प्रायश्चित्त देने का उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में हमें प्रायश्चित्त के इस भेद (प्रकार) का उल्लेख नहीं मिलता है।
उपर्युक्त चर्चा करने के बाद वर्धमानसूरि ने छेदप्रायश्चित्त मूलप्रायश्चित्त एवं पारांचित के योग्य दोषों की चर्चा की है तथा यह भी उल्लेख किया है कि अनवस्थाप्य तपकर्म और पारांचित- ये दोनों प्रायश्चित्त अन्तिम चौदह पूर्वधर भद्रबाहु के समय से विच्छेद है। शेष प्रायश्चित्त जब तक जिन शासन है, तब तक रहेंगे। ३५ दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें छेद, मूल, अनवस्थाप्य (परिहार) एवं पारांचित (परिहार प्रायश्चित्त का एक भेद) के योग्य दोषों की चर्चा मिलती है, किन्तु वहाँ इनका वर्णन आचारदिनकर की अपेक्षा संक्षिप्त है।
वर्धमानसूरि ने यहाँ तक जिन प्रायश्चित्तों की चर्चा की है, वे सब मुनिजीवन से सम्बन्धित हैं। इसके बाद उन्होंने श्राद्धजीतकल्प के अनुसार बारह व्रतधारी श्रावकों की तपरूप प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख किया है। वहाँ मुनि की भाँति श्रावकों हेतु दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान नहीं है। मन से जिनेश्वर परमात्मा के वचनों में शंका होने पर, अन्य धर्म की इच्छा रखने पर, धर्मकरणी के फल में संदेह रखने पर, मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करने पर तथा उनके साथ परिचय रखने पर आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त आता है तथा उससे अधिक तीव्र भाव से इन दोषों का सेवन करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है, इत्यादि।२६ श्रावक के दर्शन, ज्ञान आदि में लगने वाले दोषों की चर्चा एवं उनके प्रायश्चित्तों का वर्णन भी हमें आचारदिनकर में मिलता है। इसके अतिरिक्त श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों की प्रायश्चित्त-विधि का भी वहाँ उल्लेख हुआ है। दिगम्बर-परम्परा के प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों, यथा- छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, एवं प्रायश्चित्त आदि में हमें व्रतधारी श्रावक एवं सामान्य श्रावक की प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख मिलता है, जैसे- छेदशास्त्र में कहा गया है कि मुनियों के लिए प्रायश्चित्त का जो विधान है, वही विधान श्रावकों के लिए भी है। उत्तम श्रावक को मुनि की अपेक्षा आथा प्रायश्चित्त, दिया जाना चाहिए। उसका आधा प्रायश्चित्त
७३५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६२२. ७६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६२२. ७० छेदशास्त्र, अज्ञातकर्ता, पृ.- १०१, माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थ माला, हीराबाग, मुम्बई : १६७८.
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