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________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 357 ब्रह्मचारी को, उससे आधा प्रायश्चित्त मध्यम श्रावक को, उससे आधा प्रायश्चित्त जघन्य श्रावक को दिया जाना चाहिए। पंचमहापातक करने पर विशेष शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त के अतिरिक्त जिनपूजा करने का निर्देश देना चाहिए, इत्यादि। वैदिक-परम्परा में हमें बारह व्रतधारी श्रावक की प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है। __इसी प्रकरण में वर्धमानसूरि ने अन्य जीतकल्पों यथा लघुजीतकल्प, व्यवहार एवं जीतकल्प का आश्रय लेकर पुनः साधु एवं श्रावकों की प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख किया है, जिसका उल्लेख स्थानाभाव के कारण हम यहाँ नहीं कर रहें है। उसे आचारदिनकर के मेरे द्वारा किए गए अनुवाद में देखा जा सकता है। इसके बाद वर्धमानसरि ने प्रायश्चित्त-विधि के एक अन्य प्रकार, अर्थात प्रकीर्णक-प्रायश्चित्त एवं भावप्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख किया है। इसमें साधु एवं श्रावकों की छोटे-छोटे से दोषों की प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख हुआ है, जैसे मुनि यदि लोच की पीड़ा से चलायमान हो जाए, तो उपवास का प्रायश्चित्त आता है। बाईस परीषहों को सहन न कर पाए, तो भी उपवास का प्रायश्चित्त आता है। अध्यापन कराते समय श्रावक एवं शिष्य आदि को मारने पर इन दोनों दोषों की शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है। मुमुक्षु यदि सद्गुरु की आज्ञा का विधिपूर्वक पालन न करे, अर्थात् उनकी आज्ञा का उल्लंघन करे, तो उसे निर्विकृति का प्रायश्चित्त आता है,७३८ इत्यादि। इसी प्रकार श्रावकों द्वारा लज्जादि के कारण अन्य परम्पराओं के देवताओं तथा साधुओं को नमस्कार करने पर उसकी शुद्धि जिनपूजा से होती है। बलात्कारपूर्वक सब व्रतों का भंग करने पर मुनियों एवं गृहस्थों को दस उपवास का प्रायश्चित्त आता है , इत्यादि। दिगम्बर-परम्परा के प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों में भी हमें साधु एवं श्रावकों के प्रकीर्णक दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है, किन्तु आचारदिनकर में वर्णित कुछ प्रकीर्णक दोषों का उल्लेख हमें वहाँ नहीं मिलता है, जैसे- मुनि यदि लोच की पीड़ा से चलायमान हो जाए, तो क्या प्रायश्चित्त आता है। इसके स्थान पर हमें इस बात का उल्लेख अवश्य मिलता है कि मुनि चातुर्मास में लोच न कराए, तो एक उपवास का प्रायश्चित्त आता है। एक वर्ष में भी यदि लोच न कराए, तो निरन्तर दो उपवास का और पाँच वर्ष में भी यदि लोच न कराए, तो "पंचकल्याण" का ७३८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २५७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ७२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २५७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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