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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 355 वैदिक-परम्परा में आचारदिनकर की भाँति दसविध प्रायश्चित्तों का विधान देखने को नहीं मिलता है। तपयोग्य प्रायश्चित्त में वर्धमानसरि ने पंचाचार- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार में लगने वाले दोषों का उल्लेख किया हुआ है। इनमें भी चारित्राचार में लगने वाले दोषों का उल्लेख विस्तृत रूप से हुआ हैइसमें उन्होंने न केवल चारित्र जीवन में लगने वाले दोषों का ही वर्णन किया है, वरन् पिण्डैषणा सम्बन्धी सैंतालीस दोषों के प्रायश्चित्तों का भी विस्तृत विवेचन किया है, जैसे- कर्म औददेशिकपिण्ड, परिवर्तितपिण्ड, स्वग्रह पाखण्ड मिश्रपिण्ड, बादर प्राभृतिक पिण्ड, सत्प्रत्यवायाहृतपिण्ड के ग्रहण करने पर, अथवा लोभवश अतिमात्रा में पिण्ड का ग्रहण करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है। प्रत्येक वनस्पतिकाय या अनंत वनस्पतिकाय से निक्षिप्त पिण्ड के ग्रहण करने पर भी उपवास का प्रायश्चित्त आता है, इत्यादि। दिगम्बर-परम्परा में हमें पंचाचार में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि वहाँ पिण्डैषणा सम्बन्धी दोषों का उल्लेख मिलता है"३२, किन्तु उनके लिए वहाँ प्रायश्चित्त का क्या विधान है, उसका हमें उल्लेख नहीं मिला है। वैदिक-परम्परा में भी हमें उक्त दोषों की प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है। वर्धमानसूरि ने जीतकल्पसूत्र का आश्रय लेते हुए आचार्य को प्रायश्चित्त देने के सम्बन्ध में कहा है७३३ कि आचार्य को छेदप्रायश्चित्त आता हो, तो भी उसे तपयोग्य प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है। विशिष्ट छेद प्रायश्चित्त चार मास या छ: मास का होता है। बुधजनों द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना, अर्थात् जिस रूप में उस दोष का आचरण किया है, उसको सम्यक् प्रकार से ध्यान में रखकर अधिक या कम प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। इसके साथ ही वर्धमानसूरि ने शास्त्रों में वर्णित चार प्रकार की पुरुष प्रतिसेवना- (१) आवृत्ति (२) प्रमाद (३) दर्प एवं (४) ७३' आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४४, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ७३२ मूलाचार, सं.-डॉ. फूलचन्द्र जैन एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार-पंचम, भारत वर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्, प्रथम संस्करण : १६६६. ७३ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. o आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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