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________________ 340 साध्वी मोक्षरला श्री इसी कामना से अभिभूत होकर वह इस प्रकार के विधि-विधान करता है, जो उसके कार्य को पुष्टता प्रदान करें, अर्थात् उसके कार्य में अभिवृद्धि करें। इस प्रकार पौष्टिककर्म कार्य की सिद्धि करने हेतु किया जाता है। वर्धमानसूरि के अनुसार ६८ सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थ के सभी संस्कारों में दीक्षाग्रहण के पूर्व, किसी व्रत को ग्रहण करने के पूर्व, सभी प्रकार की प्रतिष्ठाओं में, राज्य एवं संघ में किसी पदारोपण के समय, सभी शुभ कार्यों में, सभी पर्यों में, महोत्सव के सम्पूर्ण होने पर, महाकार्य के संपूर्ण होने पर पौष्टिककर्म किया जाना चाहिए। वैदिक-परम्परा में यह अनुष्ठान कब किया जाना चाहिए? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भवतः वहाँ यह कृत्य कभी भी किया जा सकता है, क्योंकि वहाँ पौष्टिक कर्म को जीवन की पुष्टि हेतु किया जाने वाला धार्मिक कृत्य माना गया है,६६६ इस अपेक्षा से व्यक्ति अपने जीवन की पुष्टि के लिए कभी भी यह विधान कर सकता है। उसके लिए किन्हीं विशेष परिस्थितियों का होना आवश्यक नहीं है। संस्कार का कर्ता आचारदिनकर के अनुसार यह विधान गृहस्थ गुरु अर्थात विधिकारक द्वारा करवाया जाता है। यद्यपि यह कृत्य मुनि एवं गृहस्थ के लिए सामान्य रूप से बताया गया है, किन्तु इसका विधि-विधान गृहस्थ गुरु द्वारा ही करवाया जाता है। वैदिक-परम्परा में सामान्यतया यह विधान यज्ञ-यागादि के विशारद पण्डितों द्वारा करवाया जाता है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रज्ञप्त की हैपौष्टिककर्म-विधि वर्धमानसरि के अनुसार पौष्टिककर्म हेतु चंदन से लिप्त पीठ के ऊपर आदिनाथ भगवान की प्रतिमा को स्थापित कर विधिपूर्वक उसकी पूजा करें। तत्पश्चात् जिनप्रतिमा के समक्ष उत्तम धातु के पाँच पीठ स्थापित कर उन पर क्रमशः चौसठ इन्द्र, दस दिक्पाल, क्षेत्रपाल सहित नवग्रहों, सोलह विद्यादेवियों एवं षद्रह देवियों की स्थापना करें। तत्पश्चात् उनके मंत्रों से विधिपूर्वक पूजा करें तथा उन्हें संतुष्ट करने हेतु अष्टकोण के अग्निकुंड में आम्रवृक्ष की समिधाओं सहित ६६८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- पैंतीसवाँ, पृ.- २३८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. हिन्दू धर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.- ४१६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण : १६७८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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