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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन इक्षुदण्ड, खर्जूर, द्राक्ष, घृत, एवं दूध से हवन करें। तत्पश्चात् बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक जिनबिम्ब की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् स्नात्र जल एवं सर्व तीर्थों के जल से पौष्टिककलश भरें। तदनन्तर आचारदिनकर में पौष्टिक - कलश की विधि तथा पौष्टिकदण्डक ( मूलपाठ) का उल्लेख हुआ है। पौष्टिककलश भरकर कर्म करवाने वाला कुश द्वारा उस जल से अपने गृह को अभिसिंचित करे तथा कलश को अच्छी तरह से अपने घर में ले जाकर हमेशा उस जल से छिड़काव करे। तत्पश्चात् चौसठ इन्द्र, दस दिक्पालों आदि का विसर्जन करे । तदनन्तर साधुओं को प्रचुरमात्रा में वस्त्र एवं चतुर्विध आहार का दान करे तथा सभी प्रकार की पूजा - सामग्री से गुरु की पूजा करे। विधि के अन्त में यह भी बताया गया है कि यह कर्म कब किया जाना चाहिए तथा इस कर्म को करने से क्या लाभ होता है । यहाँ हम इस सब की विस्तृत चर्चा नहीं करेंगे । एतदर्थ मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के तृतीय भाग में पैंतीसवें उदय को देखा जा सकता है। उपसंहार उपर्युक्त चर्चा करने के पश्चात् पौष्टिककर्म की उपयोगिता एवं आवश्यकता के सम्बन्ध में हमें अपने विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे। सर्वकार्यों के आरम्भ में पौष्टिककर्म करना आवश्यक है, क्योंकि कार्य के आरम्भ में किया गया पौष्टिककर्म पुष्टि को प्रदान करता है तथा देवों की सम्यक् प्रकार से पूजा करने से नियत कार्य की सिद्धि होती है, इसलिए कार्य के आरम्भ में पौष्टिककर्म अवश्य किया जाना चाहिए। पौष्टिककर्म के प्रभाव से आधि, व्याधि, दुराशयी, दुष्टों, शत्रुओं एवं पापों का नाश होता है, देवता प्रसन्न होते हैं, यश बुद्धि एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है, आनंद एवं प्रताप में वृद्धि होती है तथा प्रयत्नपूर्वक आरम्भ किए गए महाकार्यों में विशेष सफलता मिलती है। " ७०१ इस प्रकार पौष्टिककर्म के महत्व को देखकर पौष्टिककर्म की आवश्यकता महसूस होती है। महामंगलकारी कार्यों, यथा-प्रतिष्ठा आदि विधानों में तो यह कर्म अवश्य ही किया जाना चाहिए। क्योंकि शुभ कार्यों में अनेक विघ्न आने की आशंका बनी रहती है। कहा भी गया है कि “श्रेयांसे बहुविघ्नानि", अर्थात् कल्याणकारी कार्यों में अनेक विघ्न आते है। अतः उन विघ्नों के निवारणार्थ एवं कार्य की सिद्धि के लिए पौष्टिककर्म किया जाना महत् आवश्यक है। ७०० 1909 341 आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-पैंतीसवाँ, पृ. २३८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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