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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन । 339 गया है, कि जीवन की पुष्टि के लिए जो धार्मिक कृत्य किया जाता है, उसे पौष्टिककर्म कहते हैं। ६५ वर्धमानसरि ने इस प्रकरण में पौष्टिककर्म की विधि बताई है। व्यक्ति को अपने जीवन में आनन्द एवं प्रताप की वृद्धि कैसे करनी चाहिए, अर्थात् इसके लिए उसे क्या अनुष्ठान करना चाहिए? इसका इस विधि में विस्तृत वर्णन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में पौष्टिककर्म-विधान का उल्लेख हमारे देखने में नही आया। वैदिक-परम्परा में पौष्टिककर्म का विधान शान्तिकर्म के साथ-साथ ही देखने को मिलता है, क्योंकि वैदिक-परम्परा में ये दोनों ही कर्म यज्ञ-याग से सम्बन्धित माने जाते हैं, किन्तु इन दोनों कृत्यों में अन्तर है। वैदिक-परम्परा के अनुसार ६६ पौष्टिक कार्यों में होम, यज्ञ, यागादि कृ त्य आते हैं, जो दीर्घायु की प्राप्ति हेतु किया जाता है। शान्तिक कृत्यों होमादि का आयोजन दुष्ट ग्रहों के प्रभाव को दूर करने तथा असाधारण घटनाओं जैसे पुच्छलतारे के उदय, भूकम्प अथवा उल्काओं के पतन से होने वाले अनिष्ट के निवारणार्थ किया जाता है, किन्तु आचारदिनकर की भाँति वहाँ पौष्टिककर्म से सम्बन्धित किसी विशेष विधि का उल्लेख हमें देखने को नहीं मिला। प्रतिष्ठामयूख में इतना उल्लेख अवश्य मिलता है, कि पौष्टिककर्म हेतु पौष्टिक मंत्रों से पलाश, उदुम्बर, अश्वत्थ, अपामार्ग और शमी में से प्रत्येक की बारह हजार या छः हजार या तीन हजार अथवा एक हजार आठ अथवा एक सौ आठ समिधाएँ “हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे." इत्यादि मंत्र का पाठ करते हुए कुण्ड के समीप रखवाकर अपने सहयोगी ऋत्विजों के साथ यथा संख्य आहुतियों से हवन करें। इसके अतिरिक्त हमें पौष्टिक विधान सम्बन्धी और कोई जानकारी नहीं मिली, जिसके साथ हम आचारदिनकर में वर्णित पौष्टिक विधान की तुलना कर सकेविद्वज्जनों से निवेदन है कि यदि उन्हें इस सम्बन्ध में कोई जानकारी हो, तो हमें अवश्य ज्ञात कराएं। पौष्टिककर्म करने का क्या उद्देश्य है, इसके किए जाने के पीछे क्या रहस्य है? ऐसे अनेक प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन-मस्तिष्क में उभरकर आते है, किन्तु जब हम इस शब्द के अर्थ के बारे में विचार करते हैं, तो स्वतः ही हमारे प्रश्न का समाधान हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति कार्य का आरम्भ करने से पूर्व अपने मन में यही कामना करता है कि मेरा यह कार्य सिद्धि को प्राप्त करे और ६५ हिन्दू धर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.- ४१६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण : १६७८ ६६६ हिन्दू धर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.- ४१६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण : १६७८. प्रतिष्ठामयूख,अनु.- डॉ. महेशचन्द्र जोशी, पृ.- १६८, कृष्णादास अकादमी, वाराणसी, प्रथम संस्करण :१६६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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