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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 329 इसका प्रत्युत्तर देते हुए वर्धमानसूरि ने स्वयं आचारदिनकर में कहा है कि प्रतिष्ठा-विधि द्वारा मूर्ति को विशिष्ट नाम देकर पूज्यता प्रदान की जाती है। इस विधि द्वारा ही मूर्ति में प्रभावक शक्ति उत्पन्न होती है, क्योंकि जिस प्रकार गृह, कुएँ, बावड़ी आदि की प्रतिष्ठा-विधि से उनकी प्रभावकता में वृद्धि होती है, उसी प्रकार सिद्ध तथा अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा की भी प्रतिष्ठा-विधि से उसके प्रभाव में अभिवृद्धि होती है। उस प्रतिष्ठा-विधि से सम्यग्दृष्टि देव तथा अधिष्ठायक देव मूर्ति के प्रभाव में अभिवृद्धि करते हैं, जिससे पूजक वांछित फल को प्राप्त करता है। प्रतिष्ठा-विधि हेतु ग्रह, नक्षत्र आदि की स्थिति का ज्ञान होना भी आवश्यक है, क्योंकि शुभलग्न में की गई प्रतिष्ठा मंगलकारी होती है। अशुभ लग्न में की गई प्रतिष्ठा न केवल प्रतिष्ठाकर्ता के लिए ही, वरन् श्रीसंघ के लिए भी अमंगलकारी होती है, जैसा कि स्वयं वर्धमानसूरि ने कहा हैं कि प्रतिष्ठालग्न में चन्द्रमा यदि मंगल एवं सूर्य से युक्त हो, अथवा चन्द्र पर उक्त ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो, तो अग्नि का भय रहता है, चन्द्रमा यदि शनि से युक्त या दृष्ट हो, तो मरणभयकारक होता है। प्रतिष्ठालग्न में सूर्य बलहीन हो, तो प्रतिष्ठा करने वाले का और चन्द्र बलहीन हो, तो उसकी पत्नी का, शुक्र बलहीन हो, तो धन का एवं गुरु बलहीन हो, तो निश्चित रूप से सुख का नाश करता है। सूर्य और शनि वक्री हो, तो प्रासाद का विनाश करता है। मंगल, शनि, राहु, रवि, केतु, शुक्र- ये ग्रह कुंडली के सातवें स्थान में हों, तो प्रतिष्ठा करवाने वाले का तथा प्रतिमा का भी शीघ्र विनाश होता है, इत्यादि उल्लेख आचारदिनकर के अतिरिक्त कल्याणकलिका में भी मिलते हैं। प्रतिष्ठा-विधि के दरम्यान अनेक धार्मिक उत्सव किए जाते है। इन धार्मिक उत्सवों में धर्मात्मा लोगों के एकत्रित होने से जनसमूह में धर्म की महती प्रभावना होती हैं। धर्म के प्रति लोगों में उत्साह प्रकट होता है, जिससे धार्मिकजनों के पापों का प्रक्षालन होता है, इसलिए विधि-विधानपूर्वक प्रतिष्ठा संपन्न करना कर्मों की निर्जरा का हेतु भी है। ६७°आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-तेंतीसवाँ, पृ.-१४१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. "आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-तेंतीसवाँ, पृ.-१४१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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