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________________ 328 साध्वी मोक्षरत्ना श्री की प्रतिष्ठा, वृक्ष की प्रतिष्ठा, अट्टालिकादि की प्रतिष्ठा, दुर्ग की प्रतिष्ठा तथा गृहोपयोगी अन्य सामग्रियों की अधिवासना आदि की विधि का विस्तृत उल्लेख मिलता है। दिगम्बर-परम्परा के प्रतिष्ठापाठ आदि ग्रन्थों में उपर्युक्त विधियों का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु प्रतिष्ठासारोद्धार में श्रुतदेवता की प्रतिष्ठा, आचार्य (मूर्ति) की प्रतिष्ठा, यक्षादि मूर्ति की प्रतिष्ठा के उल्लेख मिलते है।६६७ वैदिक-परम्परा में इनमें से कुछ विधियों का उल्लेख अग्निपुराण आदि में अवश्य मिलता है। यथा- सूर्यप्रतिष्ठा, द्वारप्रतिष्ठा, गौरप्रतिष्ठा, कूप, वापी, तड़ाग आदि की प्रतिष्ठा, देवता सामान्यप्रतिष्ठा, वास्तुप्रतिष्ठा आदि। अन्त में ग्रन्थकार ने सभी प्रतिष्ठाओं की प्रतिष्ठा दिन शुद्धि की विधि का उल्लेख किया है जैसे- स्वनक्षत्र, तिथि, और वारों में कृष्ण पक्ष के शुभलग्न में चन्द्रमा एवं तारों का बल देखकर उन देवों की स्थापना करनी चाहिए, पुष्य, श्रवण, अभिजित नक्षत्र में ऐश्वर्य से परिपूर्ण कुबेर और कार्तिकेय की प्रतिष्ठा करनी चाहिए, अनुराधा तिग्मरुच, हस्त एवं मूल नक्षत्र में दुर्गादि की प्रतिष्ठा करनी चाहिए, इत्यादि।६६८ दिगम्बर-परम्परा के हमारे पास जो ग्रन्थ हैं, उनमें इस प्रकार का उल्लेख देखने को नहीं मिला। वैदिक-परम्परा के कुछ ग्रन्थों प्रतिष्ठामयूख, श्रीप्रभुविद्या प्रतिष्ठार्णव में हमें उपर्युक्त विषय की आंशिक चर्चा मिलती है, जैसे- श्रीप्रभुविद्या प्रतिष्ठार्णव में कहा गया है कि सब देवताओं की प्रतिष्ठा वैशाख, ज्येष्ठ एवं फाल्गुन मास में करनी चाहिए। विष्णु को छोड़कर अन्य सब देवताओं की प्रतिष्ठा माघ मास में करनी चाहिए, मातृ, भैरव, वाराह, नरसिंह तथा त्रिविक्रम की प्रतिष्ठा दक्षिणायन में करनी चाहिए, इत्यादि। इस प्रकार हम देखते हैं कि तीनों परम्पराओं में प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधियों में कहीं-कहीं समानता दिखाई देती है, तो कहीं विषमता दृष्टिगत होती है। उपसंहार इस तुलनात्मक विवेचन के पश्चात् इस संस्कार की आवश्यकता के विषय में हम कुछ विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे। पाषाण से निर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा करने से क्या मतलब है, क्योंकि जो स्वयं पाषाण है, निर्जीव है, वह दूसरे का क्या उपकार कर सकती है? ऐसी पाषाण की प्रतिमा या अन्य किसी वस्तुओं से निर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा या अधिवासना करने की क्या आवश्यकता है? प्रतिष्ठासारोद्धार, पं. आशाधरजी, अध्याय-६, पृ.-१३०-१३३, पं. मनोहरलाल शास्त्री, श्री जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६७४. ६६आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-तेंतीसवाँ, पृ.-२१८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६६६श्री प्रभुविद्या प्रतिष्ठार्णव, पं. दौलतराम गौड़, पृ.- ३, सावित्री ठाकुर प्रकाशन, २००४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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