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________________ 330 साध्वी मोक्षरत्ना श्री शान्तिककर्म-विधि शान्तिककर्म-विधि का स्वरूप शान्तिककर्म का तात्पर्य है- संकट को दूर करने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान,५७२ अर्थात जिस क्रिया से संकटों का निवारण हो, उनका उपशमन हो, उसे शान्तिककर्म कहते है। इस प्रकार शान्तिककर्म एक ऐसा अनुष्ठान है, जो व्यक्ति को अमन-चैन प्रदान करता है। वैदिक-परम्परा के हिन्दू शब्दकोश में भी कहा गया है - "वे सभी कर्म शान्तिककर्म कहलाते हैं, जिनसे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक उपद्रव शान्त होते हैं। यद्यपि आगे चलकर ज्योतिष की व्यापकता बढ़ जाने पर ग्रह-शान्ति कर्मकाण्ड का प्रधान अंग बन गया, किन्तु प्राचीनकाल में शान्तिककर्म का क्षेत्र व्यापक था और शान्तिककर्म का तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से लिया जाता था, जो व्यक्ति को सुख-शान्ति प्रदान करे। वर्धमानसूरि ने इस प्रकरण में उन सभी अनुष्ठानों का उल्लेख किया है, जो सामान्यतया शान्तिककर्म के रूप में लोकप्रचलित रहे है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी शान्तिककर्म सम्बन्धी विधि-विधानों के उल्लेख मिलते है। शान्तिक कर्म विघ्नों के उपशमन हेतु किया जाता है। जैसा कि स्वयं वर्धमानसरि ने भी व्यवहार परमार्थ में कहा है६७४ कि "शान्तिक कर्म विघ्नों के शमन हेतु किया जाता है। इसमें चतुर्निकाय देवों की पूजा करके उनको प्रसन्न किया जाता है, उनके प्रसन्न होने से सर्वविघ्नों का विनाश हो जाता है। शान्तिककर्म करने से अनिष्टकारी उपद्रव एवं दावानल भी शान्त हो जाते है। जिनस्नात्रविधि से प्राप्त जल से सर्वदोषों का निवारण होता है तथा शान्तिपाठ के उद्घोष से दुष्ट, अर्थात् अनिष्टकारी शक्तियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं।" इस प्रकार शान्तिककर्म किए जाने का मुख्य प्रयोजन अनिष्ट शक्तियों को शक्तिहीन करके सुख-शान्ति को प्राप्त करना है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी विघ्नों का उपशमन करने के उद्देश्य से ही शांतिककर्म किया जाता हैं। ____ वर्धमानसूरि के अनुसार७५- “सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थ के सभी संस्कारों में, सभी प्रतिष्ठाओं में, छः मास या एक वर्ष में, किसी भी महाकार्य के प्रारम्भ में, उपद्रव दिखाई देने पर या होने पर, रोग, दोष, महाभय, या संकट की स्थिति में गृहस्थ, विधिकारकों के द्वारा यह क्रिया करवाई जानी संस्कृत-हिन्दीकोश, वामन शिवराम ऑप्टे, पृ.- १०११, भारतीय विद्या प्रकाशन , वाराणसी, १९६६. ६७ हिन्दू शब्दकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.- ६२६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७८. ६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण, १६२२. ६७ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चौतीसवाँ, पृ.-२२५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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