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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 311 का निर्देश तो दिया गया है, किन्तु इसके साथ ही अन्त में पर्वत-गुफा में जाकर पादोपगमन अनशन करने का भी निर्देश दिया गया है। इस प्रकार आचारदिनकर एवं उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित संलेखना की तप-विधि में कुछ अन्तर दिखाई देता है। संवेगरंगशाला५२३ में वर्णित विधि में भी हमें एक विशेष बात देखने को मिली कि सलेखनाकाल के अंतिम बारहवें वर्ष के शेष चार मास में साधक को लम्बे समय तक मुख में तेल भरकर कुल्ला करने को कहा है-ऐसा करने से साधक का मुख वायु से बन्द नहीं होता है तथा मृत्युकाल में भी वह नमस्कार महांमत्र का स्मरण बिना किसी कष्ट के कर सकता है। आचारदिनकर में हमें इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें बारह वर्ष के दरम्यान इस प्रकार के विचित्र तप करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। भगवतीआराधना के अनुसार साधक प्रथम चार वर्ष नाना प्रकार के तप द्वारा काय एवं क्लेशों को क्षीण करने में व्यतीत करता है। बाद के चार वर्षों में वह भोजन में समस्त प्रकार के रसों का परित्याग करके शरीर को सुखाता है। यहाँ रसों के परित्याग से तात्पर्य दूध, घी, दही, मिठाई, नमकीन आदि समस्त प्रकार के सरस पदार्थों का परित्याग करना है। शेष चार वर्षों में से दो वर्ष कांजी और सरस व्यंजन आदि से रहित भोजन खाकर व्यतीत करता है, बाद के दो वर्ष में से एक वर्ष केवल कांजी का आहार लेता है। अंतिम बारहवें वर्ष के प्रथम छः महीने मध्यम तप तथा अंतिम छः महीने उत्कृष्ट तप करते हुए व्यतीत करता है। __ इस प्रकार दोनों परम्पराओं में बारह वर्ष तक विचित्र तप द्वारा शरीर एवं कषाय को कृश किया जाता है। आगम में कहे गए अनुसार व्रतों का पालन करते हुए कदाचित पूर्वकर्म के कारण उसे रोग या शरीर में पीड़ा उत्पन्न हो जाए, तो उस समय साधक को एवं निर्यापकाचार्य को क्या करना चाहिए-इसका भी वर्धमानसूरि ने स्पष्ट उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि “रोग के उत्पन्न होने पर साधक को यथासंभव, जब तक हो सके, तब तक वेदना को सहन करना चाहिए, चिकित्सा नहीं करवानी चाहिए, किन्तु साधक के व्यथित होने पर निर्यापक मुनि का यह कर्तव्य है कि वह विषम उपायों से, अर्थात् अपवादमार्ग का आश्रय लेकर भी उसकी रक्षा करे। ६२"संवेगरंगशाला, जिनचन्द्रसूरिकृत, गाथा-४०१२-४०१६, पण्डित बाबूभाई सवचंद ६५५/अ, मनसुखभाई पोल, कालूपुर, अहमदाबाद, वि.सं.-१२५०. ६"भगवतीआराधना, सं.-कैलाशचन्द्र शास्त्री, गाथा -२५५-२५६, बाल ब्र. श्री हीरालाल खुशालचंद दोशी, फलटण, ई.सं.-१६६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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