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________________ 312 साध्वी मोक्षरत्ना श्री चिकित्सा करने पर भी यदि रोग का निरोध न हो, तो निर्यापक मुनि योगशास्त्र के पंचमप्रकाश में वर्णित बाह्य चिह्नों एवं आभ्यन्तर साधनों से मृत्यु को निकट जानकर मुनि को आराधना कराए।,६२५ सामान्यतयाः श्वेताम्बर एवं दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में हमें संलेखना के अन्तर्गत रोगोपचार कराने के उल्लेख प्राप्त नहीं होते है; मृत्यु के निकट आने पर अन्त्य - आराधना करने सम्बन्धी उल्लेख अवश्य प्राप्त होते हैं। वर्धमानसूरि ने यहाँ अपवादमार्ग में चिकित्सा की बात कही है, वह परिस्थिति विशेष का विचार करके कि क्षपक को विकलता न हो, समाधि न टूटे - इस दृष्टि से कही है। _६२६ वर्धमानसूरि के अनुसार' मृत्यु का समय निकट जानकर ग्लानमुनि के समक्ष चतुर्विधसंघ को एकत्रित करके एवं जिनबिम्ब को लाकर उसको अन्तिम आराधना करवानी चाहिए | अन्तिम आराधना की विधि में ग्लान को किस प्रकार से देववन्दन करवाना चाहिए, किन-किन देवताओं के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति करनी चाहिए, ग्लान को वासक्षेप किस प्रकार से प्रक्षेपित करना चाहिए, पूर्वकृत दुष्कृत्यों की गर्हा ग्लान को किस प्रकार से करनी चाहिए, चतुर्विधसंघ एवं सर्वजीवों से किस प्रकार क्षमायाचना करनी चाहिए. इत्यादि, इन सब बातों का विस्तृत विवेचन आचारदिनकर में मिलता है । इसके साथ ही इस विधि में ग्लान को पुनः सर्वविरतिदण्डक एवं महाव्रतों के उच्चारण करवाने का भी निर्देश दिया गया है। ६२७ श्वेताम्बर - परम्परा के अन्य ग्रन्थों, जैसे - विधिमार्गप्रपा में भी इस विधि का उल्लेख मिलता है। २८ विधिमार्गप्रपा में वर्णित विधि प्रायः आचारदिनकर में वर्णित विधि के सदृश ही है। दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में हमें इस प्रकार की विधि का उल्लेख तो देखने को नहीं मिलता है, किन्तु उसमें भी पुनः महाव्रतारोपण, सर्वजीवराशि से क्षमायाचना एवं दुष्कृत्यों की आलोचना के उल्लेख हैं। ग्लान की मृत्यु के पश्चात् उसके मृतशरीर की परिष्ठापन-क्रिया किस प्रकार से करें ? इसका भी आचारदिनकर में सम्यक् प्रकार से विवेचन किया गया है । साधु के प्राण निकल जाने पर उसके शरीर के विसर्जन की क्रिया सभी मुनिजन करते हैं। इसके लिए मुनिजन सर्वप्रथम तीन प्रकार की स्थंडिलभूमि की गवेषणा करते हैं। तत्पश्चात् मृत मुनि की क्या-क्या क्रियाएँ करनी चाहिए, मुनि ६२५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बत्तीसवाँ, पृ. १३६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६२६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बत्तीसवाँ, पृ. १३६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६२० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- बत्तीसवाँ, पृ. १३७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६२८ विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण- ३२, पृ. ७७, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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