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________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 299 इन्द्रियों का निग्रह करना है।५८७ ऋतुओं के परिवर्तन होने से व्यक्ति के परिवेश में भी अनेक परिवर्तन होते हैं, जो मुनि-जीवन पर बहुत प्रभाव डालते हैं। बाहरी वातावरण के परिवर्तनों के बीच रहकर भी साधु अपने संयम का पूर्ण रूप से पालन कर सके-इस उद्देश्य से ग्रन्थकार ने इसे मुनि-जीवन सम्बन्धी विधिविधान के रूप में विवेचित किया है। वर्धमानसरि ने जिन-जिन ऋतुओं में जो-जो कार्य करने या नहीं करने के विधि-निषेध किए हैं, सम्भवतः उनके समय में उन-उन ऋतुओं में ही उन क्रियाओं का आचरण किया जाता होगा या नहीं किया जाता होगा-ऐसा हम मान सकते हैं। यद्यपि प्रकीर्णक साहित्य में विशेष रूप से गणिविज्जा एवं गच्छाचार में विहार के सम्बन्ध में इस बात का उल्लेख अवश्य मिलता है कि मुनि को किन-किन वारों, नक्षत्रों, तिथियों आदि में विहार करना चाहिए, किन-किन वारों, नक्षत्रों, तिथियों आदि में विहार नहीं करना चाहिए। प्रव्रज्या, उपस्थापना, वाचनादान, योगोद्वहन आदि साधु-आचार सम्बन्धी विधि-विधानों को करवाने के सम्बन्ध में संस्कार करने वाले की चर्चा मिलती है, किन्तु ऋतुचर्या के सम्बन्ध में किसी विशेष कर्ता की चर्चा नहीं मिलती है, क्योंकि इस ऋतुचर्याविधि का वहन भी दिनचर्याविधि की भाँति स्वयं मुनि ही करता है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने ऋतुचर्या की निम्न विधि प्रज्ञप्त की हैसाधुओं की ऋतुचर्या-विधि इस विधि के अन्तर्गत वर्धमानसूरि ने अलग-अलग ऋतुओं में साधुओं की आचार विधि किस प्रकार की होनी चाहिए? इसका वर्णन किया है। इस प्रकरण में वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम हेमन्तऋतु में साधु का आचार कैसा होना चाहिए, इसका उल्लेख किया गया है। जैसे-चातुर्मास के पश्चात हेमन्तऋतु में साधु को प्रायः वस्त्रों का त्याग कर शीतपरिषह सहन करना चाहिए, अल्पनिद्रा एवं अल्प-आहार करना चाहिए, कभी भी तेल का मर्दन नहीं करना चाहिए, इत्यादि। तदनन्तर इस ऋतु में विहार की उत्तम विधि क्या है, इसका उल्लेख करते हुए सर्वप्रथम विहार करने के योग्य मुनि के लक्षणों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् विहार के लिए आवश्यक स्थितियाँ एवं वस्तुओं का भी उल्लेख किया गया है। तदनन्तर विहार के योग्य देशों एवं विहार के अयोग्य देशों के नाम बताए गए है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि मुनिजनों के लिए सूर्योदय के पश्चात् प्रतिदिन दस मुहूर्त तक पाँच सौ धनुष की यात्रा करना शुभ है। तदनन्तर विहार ५८७आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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